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________________ (३६४) अत्रोपपातसदेन, शय्यायां सुकृताञ्चिताः । उत्पद्यन्ते शक्रतया, क्रमोऽत्र प्राक् प्रपञ्चितः ॥६३१॥ इसके उपरान्त सभा में शय्या में पुण्यशाली जीव शक्र रूप में उत्पन्न होता है उसका क्रम प्रथम कहा है । (६३१) यथा हि साम्प्रतीनोऽसौ, सौधर्मनाकनायकः । प्रागासीत्कार्तिकः श्रेष्ठी, पृथिवीभूषणे पुरे ॥६३२॥ तेन श्राद्धप्रतिमानां, शतं तत्रानुशीलितम् । .. ततः शतक्रतुरिति, लोके प्रसिद्धिमीयिवान् ।।६३३॥ स चैकदा गैरिकेन, मासोपवासभोजिना । दृढार्ह तत्वरुष्टे न, नुन्नस्य क्षमापतेर्गिरा ॥६३४॥ गैरिकं भोजयामास, पारणायां नृपालये। ततः स दुष्टो धृष्टोऽसीत्यंगुल्यानासिकास्पृशन् ।।६३५॥ जहास श्रेष्ठिनं सोऽपि, गृहे गत्वा विरक्त घी: । . जग्राहाष्टस्हस्त्रेण, वणिक पुत्रैः समं ब्रतम् ॥६३६॥ अधीतद्वादशाङ्गीको, द्वादशाब्दानि संयमम् । पालयित्वाऽनशनेन, मृत्वा देवेश वरोऽभवत् ।।६३७॥ चतुभि:कलापकं। वर्तमान शक्रेन्द्र का पूर्व वृत्तांत कहते हैं - जो वर्तमान कालीन सौधर्म देवलोक में इन्द्र है, वह पूर्व जन्म में पृथ्वी भूषण पुर में कार्तिक नाम से सेठ रहता था, उस सेठ ने श्रावक प्रतिमा को एक सौ बार अराधना की थी, इससे उसका नाम 'शतक्रतु' इस तरह लोगों में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था । एक समय अरिहंत मार्ग के देवी गैरिक नामक मासो पवासी तापस की प्रेरणा से.राजा की आज्ञा से कार्तिक सेठ ने राज मंदिर में उस तापस को पारणा करवाया, इससे दुष्ट तापस ने अँगुलि से नासिका को कट करके उसे अपमानित किया । इस तरह से उस श्रेष्ठी का मखौल किया, इससे वैराग्य प्राप्त कर उस कार्तिक सेठ ने घर जाकर एक हजार आठ सौ वणिक पुत्रों के साथ दीक्षा स्वीकार की और द्वादशांगी का अध्ययन किया । बारह वर्ष संयम पालकर अंत में
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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