SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३६३) प्रथम दिशि पूर्वस्यां, तत्राशोकावतंसकं । दक्षिणस्यां सप्तवर्णावतंसकमिति स्मृतम् ॥६२४॥ पश्चिमायां चम्पकावतंसकाख्यं निरुपितम् । उत्तरस्यां तथा चूतावतंसक मुदीरितम् ।।६२५॥ तेषां चतुर्णा मध्येऽथ, स्यात्सौधर्मावतंसकम् । महाविमानं यत्राऽऽस्ते, स्वयं शक्रः सुरेश्वरः ।।६२६॥ उसमें पूर्व दिशा में प्रथम अशोकावतंसक, दक्षिण में सप्त पर्णावतं से, पश्चिम दिशा में चपकावतंसक और उत्तर दिशा में चूतावतंसक नामक विमान है और इन चारों के मध्य में सौधर्मावतंसक नामक महाविमान है । जिसमें शकेन्द्र स्वयं निवास करता है । (६२४-६२६) एमद्योजनलक्षाणि, सार्द्धनि द्वादशायतम् । विस्तीर्णं च परिक्षेपो, योजनानां भवेदेहि ॥६२७।। लक्ष्याण्येकोनचत्वारिंशद् द्विपन्चाशदेव च । सहत्राण्यष्टशत्यष्टाचत्वारिंशत्समन्विता ।।६२८॥ यह पाँच विमान साढ़े बारह लाख (१२,५०,०००) योजन लम्बा और चौड़ा होता है और उसकी परिधि उन्तालीस लाख बावन हजार आठ सौ चौवालीस (३६५२८४४) योजन होता है । (६२७-६२८) समन्ततोऽस्य प्राकारो, वनखण्डाश्चतुर्दिशम् । प्रासादशेखरो मध्ये, प्रासादपङ्किवेष्टितः ।।६२६॥ • प्रासादात्तत ऐशान्यामुपपातादिकाः सभाः ।। एवं प्रागुक्तमास्थेयं, सर्व विमानवर्णनम् ।।६३०।। . इन विमानों के चारों तरफ किला होता है, चारों दिशा में वन खंड होता है और विमान के मध्य भाग में चारों तरफ प्रासाद की पंक्ति से घिरा हुआ मुख्य प्रासाद होता है उस प्रासाद के ईशान कोने में उपपातादि सभाए है इस तरह से विमान का वर्णन जो आगे कहने का है उसके अनुसार जान लेना । (६२६-६३०)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy