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और इसके लिये ही पाँच प्रकार का सँवर में आगम के अन्दर सम्यक्त्व का संवर रुप में कहा है । (६१८)
तथाहुः - स्थानाङ्गे समवायाङ्गे भगवत्यां च-पंच संवरदारा प०, तं०सम्मत्तं विरती अपमादो अकसाइत्तं अज्जोमित्तं"।
श्री स्थानांग श्री समवायांग और श्री भगवती सूत्र में कहा है कि - पाँच संवर . द्वार कहा है वह इस तरह - १- सम्यकत्व २- विरति ३-अप्रमाद ४- अकषायत्व ५- अयोगित्व ।
एको द्वियादिसंख्येया, असंख्या अपि कर्हिचित् । .. उत्पद्यते च्यवन्तेऽमी, एकस्मिन् समये सह ।।६१६॥
यह देव एक ही समय में एक ही साथ में एक, दो, तीन से लेकर संख्यात असंख्यात उत्पन्न होते है और च्यवन होता है । (६१६)
उत्पत्तेश्च्यवनस्यापि, विरहो यदि भाव्यते । सौधर्मे शानयोर्देवलोक योरमृताशिनाम् ॥६२० ।। स चतुर्विंशतिं यावन्मुहूर्तान् परमो भवेत् । .
जघन्यतस्तु समयं यावदुक्तौ जिनेश्वरैः।।६२१॥
सौधर्म और ईशान इन दो देवलोक के देवों की उत्पत्ति और च्यवन का । विरहकाल विचार करने में आता है तो उत्कृष्ट से चौबीस मुहूर्त और जघन्य से एक समय जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (६२०-६२१) .
इन्द्रयोरथ सौधर्मेशानस्वर्गाधिकारिणोः । स्वरुपमुच्यते किंचिन्मत्वा गुरुपदेशतः ।।६२२॥ .
पूज्य गुरुदेव के उपदेश से जानकर सौधर्म और ईशान् देवलोक के अधिपति इन्द्रों का कुछ स्वरुप कहता हूं । (६२२)
तत्रादिम देवलोके , प्रतरे च त्रयोदशे । मेरोदक्षिणतः पञ्च, स्युर्विमानावतंसका ॥६२३॥ .
उसमें प्रथम देवलोक के तेरह प्रतर में मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में पाँच अवतंसक विमान होते हैं । (६२३)