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________________ (३६१) श्री भगवती सूत्र के सतरहवें शतक दूसरे उद्देश में कहा है कि हे भगवन् ! जीव धर्म में रहता है ? अधर्म में रहते हैं ? या धर्माधर्म में रहते हैं ? हे गौतम ! जीव धर्म, अधर्म और धर्माधर्म में भी रहते हैं। ___नारकी के प्रश्न के उत्तर में - हे गौतम ! नरकी धर्म में नही है, धर्माधर्म में भी नही है, किन्तु अधर्म में रहे है और मनुष्य जीव के समान समझना अर्थात कि धर्म धर्माधर्म में और अधर्म में भी रहते है और वाणव्यंन्तर वैमानिक और ज्योतिष्क नारकी जैसे अधर्म में रहे है । यहां वाणव्यन्तर के साथ में भवनपति देव लेना । .. अत्रोच्यते - एषामुक्तमिदं देशसर्वविरत्यभावतः । • तथैवात्रोद्देशकादौ,सूत्रेऽपिंप्रकटीकृतम्।।६१६॥ यह बात जो कही है वह देश विरति और सर्व विरति के अभाव के आश्रित कही है और उसी तरह से इस उद्देश में और सूत्र में प्रगट किया है । (६१६) ___ "सेणूणंसंजयविरयपडिह्यपच्चक्खायपावकम्मे धम्मे ठिए अस्संजय० अधम्मे ठिए संजयासजए धम्माधम्मे ठिए" जो संयत अर्थात सत्तरह प्रकार के संयम से युक्त विरत - बारह प्रकार के तप में विशेषासक्त । प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा अर्थात अल्प स्थिति वाला तथा पुनः दीर्घ स्थिति वाले न बंधन हो इस तरह पाप कर्म वाले उस धर्म में स्थित है ऐसा कहा जाता है जो असंयत-अविरत और अप्रतिहत-अप्रत्याख्यान पापकर्मा है वह अधर्म में स्थित है ऐसा कहा जाता है संयत, असंयत है वह धर्मा, धर्म में स्थित है इस तरह कहा जाता है । .. सर्वथा संवराभावापेक्षं नत्वेतदीरितम् । . संवरद्वाररुपस्य, सम्यक्त्वस्यैषु संभवात् ॥६१७॥ सर्वथा संवर के अभाव के अपेक्षी को यह बात नही कही क्योंकि संवर के द्वार रूप सम्यक्त्व तो इन देवों में होता है । (६१७) सम्यक्त्वमपि मिथ्यात्व निरोधात्संवरः स्फुटः । संवरेष्वत एवेदं, श्रुते पञ्चसु पठचते ।।६१८॥ मिथ्यात्व के निरोध से ही प्राप्त होने से सम्यक्त्व की स्पष्ट रूप में संवर है
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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