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________________ (३६०) तथाहुः- "तत्थ जें अमायिसम्मदिट्ठिउववण्णए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासति, पासित्ता णं वंदति णमंसति जाव पन्जुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मझमझेणं णो वितीवएजा" भगवती सूत्रे श० १४३ श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक तीसरे उद्देश में कहा है कि - वहां यदि सरल और सम्यग् द्दष्टि देव है, वह देव भावितात्मा महात्माओं को देखता है, देखकर वंदन करता है, नमस्कार करता है, वह भाविकात्मा साधु के मध्य भाग में से नहीं निकलता, उन्हीं के बीच रहता है । एवंअर्जितंपुण्यास्ते , महर्द्धिभरशालिषु । प्रत्यायान्ति कुलेषूच्चेष्वासन्नभवसिद्धिकाः ॥६१३॥ . ऐसे देवता पुण्य को प्राप्त करके आसन्न मोक्षगामी होने से अत्यन्त ऋद्धि से शोभायमान उच्च कुल में जन्म लेते हैं । (६१३). तत्रापिसुभगाः सर्वोत्कृष्टरुपा जनप्रियाः । भोगान् भुक्त्वाऽऽत्तचारित्राः क्रमाद्यान्तिपरांगतिम् ।।६१४॥ वहां पर भी सौभाग्यशाली, सर्वोत्कृष्ट रूपवाले तथा जनप्रिय बनकर भोग भोग कर चारित्र प्राप्त करके क्रमशः मुक्ति में जाते हैं । (३१४) नन्वेवमुदिताः सूत्रे, अधर्मे संस्थिता सुराः । कथं तदेष भावार्थो, न तेन विघटिष्यते ? ॥६१५॥ यहां प्रश्न करते हैं कि - सूत्र में देवताओं को अधर्म स्थिर कहा है और यहां धर्म करके सद्गति को प्राप्त करता है इस तरह कहा है तो वह भावार्थ आगम पाठ के साथ में कैसे घट सकते हैं ? तथाहि : "जीवाणं भंते । किं धम्मे ठिया अधम्मे ठिया धम्मा धम्मे ठिया । गो० । जीवा धम्मेवि ठिया, अधम्मे० धम्माधम्मे०, णेरड्या णं पुच्छा, गो० । णेरड्या नो धम्मे० नो धम्माधम्मे०, अधम्मे ठिया, मणु० जहा जीवा, वाणमंतर० जोइ० वेमा० जहा णेरइया," भगवती सूत्रे सप्तदशशतक - द्वितीयोद्देशके १७-२ ।
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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