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________________ (३८६) अचित और द्रव्य ऊपर मूर्छावाला होता है इस तरह से (भवनपति की तथा) वाणयन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को भी समझना । एवं मिथ्याद्देशो यान्ति, सारम्भाः सपरिग्रहाः । व्युत्वोपार्जितपाप्मान, एकेन्द्रियादिदुर्गतिम ॥६०७॥ इस तरह से मिथ्याद्दष्टिदेवता आरंभ और परिग्रह वाले होने से पाप का उपार्जन करके यहाँ से च्यवन कर एकेन्द्रियादि दुर्गति में जाते हैं । (६०७) सम्यग्द्दशः पुनस्तत्वत्रितये कृतनिश्चयाः । जिनादिसेवया यद्वा, पूर्वाधीतश्रुतस्मृते ।।६०८॥ विचारयन्तस्तत्वानि, सिद्धान्तोक्तानि चेतसा । शुद्धोपदेशैः ‘सम्यक्त्वं, प्रापयन्तः परानपि ॥६०६॥ उत्सवेस्त्रु महोत्साहा, अर्हत्कल्याणकादिषु । जिनोपदेशान् शृण्वन्तः, सेवमाना जिनेश्वरान् ।।६१०॥ महर्षीणांनृणां सम्यग्दृशामथ तपस्विनाम् । हितकामाः कृच्छ्मनसंघसाहाय्यकारिणः ॥६११॥ दृष्टर्षि भावितात्मानं कुर्वन्तोवन्दनादिकम् । तन्मध्येन गच्छन्ति, स्तब्धमिथ्यात्विदेववत् ॥६१२॥ सम्यग्द्दष्टि देवता तीन तत्वों परनिश्चय वाला होता है । जिनेश्वरादि की सेवा से अथवा पहले पूर्वजन्म में अध्ययन किए श्रुत याद करके सिद्धान्त में कहे तत्व का चित्त में विचार करते शुद्ध उपदेश से अन्य को भी सम्यक्त्व प्राप्त करवाता है । अरिहंतों के कल्याणक उत्सवों में बड़े उत्साह वाले होते हैं श्री जिनेश्वरों के उपदेश को सुनते और श्री जिनेश्वरों की सेवा उपासना करते महर्षि सम्यग् द्दष्टि पुरुष तथा तपस्वियों के हित की इच्छा करने वाला, दुःख में मग्न संघ को सहाय करने वाला यह देवता या पितात्मा को देखकर वंदनादि करता है, परन्तु . अभिमानी मिथ्याद्दष्टि देव के समान बीच से वंदनादि किए बिना नही चला जाता है । (६०८-६१२)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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