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तथा - विपाकोदयरुपा च चक्षुनिर्मीलनादिभिः । . व्यक्तैश्चिद्वैर्भवेद्यक्ता, तेषां निद्रा न यद्यपि ॥६००॥
प्रदेशोदयंतस्त्वेषां, स्यात्तथाप्यन्यथा कथम् । दर्शनावरणीयस्य, सतोऽप्यनुदयो भवेत् ।।६०१॥
विपाकोदय रूप आंख बंध करना आदि व्यक्त चिह्नों से उनको निद्रा नहीं आती है, फिर भी प्रदेशोदय से तो उनको निद्रा होती है अन्यथा विद्यमान भी दर्शनावरणीय का अनुदय किस तरह होता है । (६००-६०१)
क्षयश्चोपशमश्चास्य, देवानां क्रांपि नोदितः । श्रुतेऽप्येषां कर्मबन्धहे तुत्वेनेयमीरिता ॥६०२॥
इन देवताओं को आगम में दर्शनावरणीय का क्षय अथवा उपशम नहीं कहा और निद्रा का कर्मबंध के हेतु रूप में वर्णन किया है । (६०२)
. तथाहुः - "जीवेणं भंते ? निद्दायमाणे वा पयलायमाणे वा कति . कम्मपगडीओ बंधई गो० । सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबन्धए वा, एवं जाव
वेमाणिए, एवं जीवेणं भंते । हसमाणे वा उस्सुयायमाणे वा कति क० बं०? गो० सत्तबिहबंवा, अट्ठविहबं० वा, एवंजाव वेमाणिए"भगवति सूत्रे पंचम"शतकचतुर्थोद्देशके,इहचपृथिव्यादीनांहासः प्राग्भविकतत्परिणामादवसेय" इत्येतद्वृत्तौ । .. श्री भगवती सूत्र के पाँचवें शतक के चौथे उद्देश में कहा है कि - ____ प्रश्न - हे भदंत ! निद्रा लेते और प्रचला निद्रा को लेते आत्मा कितने प्रकार की कर्म प्रकृति बन्धन करता है ? '
उत्तर - हे गौतम सात अथवा आठ कर्म प्रकृति बन्धन करता है । इस तरह वैमानिक तक समझ लेना।
प्रश्न - हे भदंत ! इस तरह से हँसते और उत्सुकता करते जीभ कितने प्रकार की कर्म प्रकृति बन्धन करता है ?
उत्तर - हे गौतम सात अथवा आठ कर्म प्रकृति बन्धन करता है । इस तरह वैमानिक तक समझ लेना । यहाँ यह भगवती सूत्र के संदर्भ की बात है । यहाँ पृथ्वी