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उक्तं च - "भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिया एंगतसायं वेदणं वेदिति, आहच्च अस्सायं" भगवती सूत्रे षष्ठशतकदशमोद्देशके । तत्त्वार्थचतुर्थाध्यायटीकाय अपिउक्तं-“यदानाम केनचिन्नीमित्तेनाशुभवेदना देवानां प्रादुरस्ति तदुऽन्तमुहूत्तमेव स्यात्, ततः परं नानुबध्नाति, सद्वेदनापि सततं पाण्मासिकी भवति, ततः परं विद्विद्यतेऽन्तमुहूर्त ततः पुनरनुवर्तते'' इति ।
श्री भगवती सूत्र के छठे शतक के दसवें उद्देश में कहा है कि भवन पति वाण व्यंतर (व्यंतर) ज्योतिष्क और विमानि देवता एकान्त रूप शाता वेदनीय भोगते है और कभी अशाता को भी भोगते हैं ।
तत्त्वार्थ सूत्र के चतुर्थ अध्याय टीका में भी कहा है कि - यदि कभी किसी निमित्त से देवों को अशुभ वेदना प्रगट होता है तो तव अंत मुहुर्त ही रहती है उसके बाद वेदना का अन्त नही चलता (हमेशा अशांतना होती) शुभ वेदना भी उत्कृष्ट : से छ: महीने लगातार चलती है । उसके बाद अंत मुहुर्त विच्छेद हो जाती है पुनः प्रारम्भ होती है। ___तथा हि तुल्यस्थितिषु, निर्जरेषु परस्परम् ।'
प्रागुत्पन्नाः सुराः पश्चादुत्पन्नेभ्याऽल्पतेजसः ।।५८६॥ पश्चादुत्पन्दनाश्च पूर्वोत्पन्नेभ्योऽधिकतेजसः'। इत्थं कथंचित्स्यात्तेषां, जरा कान्त्यादिहानितः ॥५६०॥ ततस्तेजस्विनो वीक्ष्य, नवोत्पन्नान् परान्सुरान् । वृद्धा यून इवोद्वीक्ष्य, ते खिद्यन्तेऽपि केचन ॥५६१॥
तथा परस्पर समान आयुष्य वाले देवताओं में पूर्वोत्पन्न देव फिर से उत्पन्न हुए देवों से अल्प तेज वाले होते हैं और पीछे से उत्पन्न हुए देव पूर्वोत्पन्न देवों से अधिक तेजस्वी होते हैं । इस तरह से - इस अपेक्षा से कुछ उन (पुराने) देवों की कान्ति आदि भीहानि कम होने के कारण से जरा वृद्धावस्था होती है । जैसे युवाओं को देखकर वृद्ध खेद प्राप्त करता है, वैसे नवोत्पन्न वह तेजस्वी देवों को देखकर निस्तेज बनते हुए वह पुराना देव खेद प्राप्त करता है । (५८६-५६१).