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में, आनत आदि चार देवलोक के देव पांच हजार वर्ष में, नीचे से तीन अधो ग्रैवेयक के देव एक लाख वर्ष में मध्यम तीन ग्रैवेयक के देव दो लाख वर्ष में, उर्ध्व तीन ग्रैवेयक के देव तीन लाख वर्ष में, विजयादि चार विमान के देव चार लाख वर्ष में और सर्वार्थ सिद्ध के देव पांच लाख वर्ष में उतने ही कर्म परमाणुओं को खतम करते हैं । (५८०-५८५)
तुल्य प्रदेशा अप्येवं क्रमोत्कृष्टानुभागतः ।
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कर्माशाः स्युश्चिरक्षेप्या:, स्निग्धचक्रयादि भोज्यवत् ॥५८६ ॥
तुल्य संख्या वाले भी यह प्रदेश: कर्माणु स्निग्ध चक्रवर्ती के भोजन समान उत्कृट रस वाले लेने के कारण से लम्बे काल में खतम करता है । (५८६) तथा च सूत्रं - " अत्ति णं भंते! देवाणं अणंते कम्मंसे जे जहणणेणं एक्केण वा दोहिं तिहिं वा उक्कोसेणं पंचहि वाससएहिं खवयंति ? हंता.अत्थि" इत्यादि भगवती अष्टादशशतक सप्तमोद्देशके ॥
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आगम में भी कहा है कि हे भगवन्त ! देवों को इस प्रकार अनंता कर्म होते हैं कि जो जघन्य से एक, दो, तीन और उत्कृष्ट से पाँच सौ वर्ष के अन्दर खत्म करते हैं ? क्षय होते हैं । यह बात भी भगवती सूत्र के अठारहवें शतक के सातवें उद्देश में कहा है -
ततोऽमीषां शुभोत्कृष्टानुभागकर्मयोगतः ।
चिरस्थायोनि सौख्यानि, पुष्टान्यच्छिदुराणि च ॥ ५८७ ॥
इससे पूर्व में कहे अनुसार उन देवों के शुभ तथा उत्कृष्ट रस वाले कर्म के कारण से देवी सुख चिर स्थायी है, पुष्ट है और छिद्र बिना निरन्तर होते हैं ।
(५८७)
एवं स्वस्वस्थित्यवधिं देवा देव्यों यथाकृतम् ।
प्रायः सुखं कदाचित्तु दुःखमप्युपभुञ्जते ॥ ५८८ ॥
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है
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इस तरह से अपने-अपने आयुष्य तक देव और देवियाँ अपने किए कर्मों
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के अनुसार प्राय: कर सुख का अनुभव करते हैं । किसी समय दुःख को भी
. भोगना पड़ता
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