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________________ (359) विमान संख्या नियमो, विशेषश्च स्थितेरपि । प्रतिप्रतरमासां नो, जानीमोऽसंप्रदायतः ॥ ५७२ ॥ 1 किंतु संभाव्यत एवमधिकाधिक जीविताः । ऊर्वोर्ध्वप्रतरे यावच्चरमे परमायुषः ॥ ५७३॥ इन अपरिगृहीता देवियों की प्रति प्रतर में विमानों की संख्या का नियम हैं, तथा आयुष्य की विशेषता हमें परम्परा से जानने को नहीं मिलने के कारण हम नहीं कहते हैं, परन्तु इस प्रकार लगता है कि ऊर्ध्व से ऊर्ध्व प्रतर में अधिक-अधिक स्थिति वाली देवियां होती हैं । और अन्तिम प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति वाली होती है। यह हमारा अनुमान है । (५७२-५७३) आहारोच्छ्वास समय देहमानदिकं किल । अशेषमुक्तशेषं च भाव्यमासां सुपर्ववत् ॥५७४॥ आहार - उच्छ्वास के समय का अन्तर, देह का प्रमाण आदि लगभग सारा ही इसी प्रकार यहां कहा है, फिर भी जो शेष रहता हो वह देवों के समान समझ लेना चाहिए । (५७४) तथा - भवनव्यन्तर ज्योतिष्कादिदेवव्यपेक्षया । वैमानिकानां सौख्यानि, बहुन्युग्रशुभोदयात् ॥५७५॥ भवनंपति व्यंतर ज्योतिष्क देवों की अपेक्षा से अति उग्र पुण्य कर्म के उदय से वैमानिक देवों का सुख अधिक होता है । (५७५) तच्चैवं - चतुर्विधानां देवानां, स्यु पुण्यकर्मपुद्गलाः । उत्कृष्टोत्कृष्टतरकोत्कृष्टतमानुभागकाः ॥५७६॥ इस प्रकार से चारों प्रकार के देवों का पुण्य कर्म पुद्गल क्रमशः उत्कृष्ट रस, उत्कृष्टतर रस और उत्कृष्टतम रस वाला होता है । (५७६) आयुः कर्म सहचरा, अनन्तानन्तका अथ । तन्मध्याद्यावता कर्म विभागान् व्यन्तरामराः ॥५७७॥ अनन्तानपि तुच्छानुभागानब्दशतेन वै । जरयन्तिमितस्नेह भोज्यवत् क्षुधिताजनाः ॥५७८ ॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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