________________
(३७७) ये दोनों प्रकार का कृत्रिम और स्वाभाविक वैक्रिय शरीर जघन्य रूप में प्रारंभ समय के अन्दर होता है । और यह नियम अच्युत देवलोक तक इस तरह से समझना चाहिए । (५४४)
ग्रेवेयकानुत्तरेषु विमानेषु तु नाकिनाम् । । ताद्दक् प्रयोजनाभावान्नस्त्येवोत्तरवैक्रियम् ॥५४५॥
ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवताओं के ऐसे प्रकार का प्रयोजन न होने से उत्तर वैक्रिय शरीर नहीं होता । (५४५)
लेश्याऽत्र तेजोलेश्यैव, भवेभ्दवस्वभावतः । द्रव्यतो भावतस्त्वेषां, विर्वत्तन्ते षड्प्यमः ॥५४६॥
देवताओं का भव (जन्म) निमित्तक द्रव्य से तेजो लेश्या होती है, भाव से छह लेश्या हो सकती है। .
गर्भजा नरतिर्यच्च, एवोत्पद्यन्त एतयोः । स्वर्ग योपिरेऽत्रत्या, देवा गच्छन्ति पन्चसु ॥५४७॥ गर्भजेषु नृतिर्यक्षु२, संख्यातायुष्क शालिषु ।
पर्याप्तवाद रक्षोणी३ पाथो४ बनस्पतिष्वपि५ ॥४८॥ ___ गर्भज मनुष्य और तिर्यंच ही ये दो देवलोक (सौधर्म और ईशान देवलोक) में उत्पन्न होते हैं । दूसरे नहीं जब यहां के देवता पांचवे स्थान में उत्पन्न होते हैं १- संख्याता वर्ष के आयुष्य वाले गर्भज मनुष्य, २- संख्याता वर्ष के आयुष्य वाले गर्भज तिर्यंच, ३- पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, ४- पर्याप्त बादर अप्काय, ५- पर्याप्त बादर वनस्पति काय । (५४७-५४८)
· द्वधा भवन्ति देव्योऽत्र, काश्चित्कुलाङ्गना इव ।
सभर्तृकास्तदन्तयास्तु, स्वतन्त्रता गणिका इव ॥५४६॥ . यहां प्रथम और दूसरे देवलोक में देवियां दो प्रकार की होती है कई कुल नारी समान पति सहित होती है, और दूसरी स्वतंत्र वेश्या समान होती है । (५४६) - आद्ये परिगृहीतानां, स्थितिरुत्कर्षतो भवेत् ।
पल्योपमानि सप्तव, पल्योपमं जघन्यतः ॥५५० ॥