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नत्वाद्य प्रतरोत्कृष्टा, प्रतरे ह्य त्तरोत्तरे । जघन्यतः स्थितिश्चिन्त्या, नरक प्रस्तटादिवत् ॥५३६॥
इस तरह अन्य देवलोक में भी जहां जो-जो जघन्य स्थिति होती है, वह सर्व प्रतर में एक समान होती है । परन्तु प्रारंभ के प्रतर की जो उत्कृष्ट स्थिति होती है वह उसके पीछे के प्रतर की जघन्य स्थिति होती है' ऐसा नरक के प्रतर समान नियम देवलोक के प्रतर में नहीं होता है । (५३८-५३६)
एवमी शानेऽपि भाव्या, स्थितिः सौधर्म वबुधैः । वाच्या किन्त्वधिका किन्चिज्जधन्या परमापि च ॥५४०॥
इसके अनुसार ईशान देवलोक में भी सौधर्म कल्प के समान ही. स्थिति बुद्धिमान पुरुषों ने कही है । अन्तर इतना ही है कि वहां जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की स्थिति सौधर्म देवलोक से कुछ अधिक होता है । (५४२) ..
अधिकत्वं तु सामान्यान्निरूपितपपि श्रुते । पल्योपमस्यासंख्ये यभागे नाहुं मर्षयः ॥५४१॥ संग्रहणी वृत्यभिप्रायोऽसौ ॥
आगम के अन्दर अधित्व, पल्योपम का असंख्यातवे भाग इस तरह सामान्य रूप से महर्षियों ने कहा है । यह अभिप्राय सग्रहणी वृत्ति का है । (५४१)
सप्तहस्तमितं देहमिह स्वाभाविकं भवेत् ।। अङ्ग लासंख्ये भागमानमेतज्जघन्यतः ॥५४२॥.
देवों के शरीर का प्रमाण स्वाभाविक रूप में सात हाथ का होता है और जघन्य प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां विभाग होता है । (५४२)
कृत्रिम वैक्रियं तत्तु लक्षयोजन संमितम् । इदमङ्ग लसंख्येय भागमात्त्रं जघन्यतः ॥५४३॥
जो कृत्रिम वैक्रिय शरीर होता है, वह लाख योजन प्रमाण होता है, यह उत्तर वैक्रिय, जघन्य से आंगुल के संख्यातवें भाग होता है । (५४३)
जघन्यं द्वैधमप्येतत्प्रभारम्भ समये भवेत् । कृत्रिमं वैक्रियं त्वेतत्तुल्यमेवाच्युतावधि ॥५४४ ॥