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षष्ठे द्वादश भागास्ते, सप्तमे सागरोपम । प योदशेनैक भागेनाम्यधिका स्थितिः ॥५३३॥ त्रिभिस्त्रयोदशै गरैधिकं सागरोपम् ।
अष्टमे प्रतरे ज्ञेयं, नवमे पन्चमिश्च तैः ॥५.३४॥ दशमे सप्तभि र्भागरैधिकं सागरोपम् । एकादशे च नवभिादशे प्रतरे पुनः ॥५३५॥ एकादशभिरंशैस्तैः, साधिकं सागरोपम् । त्रयोदशे च प्रतरे, पृणे द्वे. सागरोपमे ॥५३६ ॥ त्रयोदशस्वपि तथा, प्रतरेषु जघन्यतः । स्थितिः पल्मोपममेकं, तास्माद्धीनां भवेदिह ॥५३७॥
एक सागरोपम के तेरह (१३) विभाग कल्पना करना, उसमें २/१३ अंश सागरोपम की प्रथम प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । ४/१३ अंश सागरोपम की दूसरे प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । ६/१३ अंश सागरोपम की तीसरे प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है ।८/१३ अंश सागरोपम की चौथे प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती 'है । १०/१३ अंश सागरोपम की पांचवी प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १२/१३ अंश सागरोपम की छठे प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १ १/१३ अंश सागरोपम की सातवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १ ३/१३ अंश सागरोपम की आठवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १५/१३ अंश सागरोपम की नौवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १ ७/१३ अंश सागरोपम की दसवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है .। १.६/१३ अंश सागरोपम की ग्यारहवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । १ ११/ १३ अंश सागरोपम की बारहवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । सम्पूर्ण दो सागरोपम की तेरहवें प्रतर में उत्कृष्ट स्थिति होती है । और तेरह तेरह प्रतरों की अन्दर जघन्य स्थिति तक पल्योपम की होती है । इससे कम स्थिति इस देवलोक में नहीं होती है । (५३१-५३७)
कल्पेषु शेषेष्वप्येवं, या या यत्र जधन्यतः । एक रूपैव सा सर्वप्रतरेषु भवस्थितिः ॥५३८॥