________________
(३७४)
इसका उत्तर देते हैं कि - किसी देवता को उत्पत्ति के समय पूर्वजन्म सम्बन्धी अंगुल का असंख्यातवें भाग प्रमाण अवधिज्ञान होता है, इससे जघन्य अवधिज्ञान कहा है । (५२६)
आगमे तु नैष पारभविकत्वाद्विवक्षितः । तथा च भगवानाह, क्षमाश्रमण पुंगवः ॥५२७॥ वेमाणियाणंमगुल भागमसंखं जहन्नओ होइ । . उववाए परमविओ, तब्भजो होइ तो पच्छा ॥२६॥
आगम के अन्दर पूर्व जनम की अपेक्षा से जघन्य अवधिज्ञान की विवक्षा नहीं की । यही बात श्री जिनभद्र मणि क्षमाश्रमण कहते हैं कि - वैमानिकं देवताओं के उत्पत्ति समय में जो जघन्य अंगुल का असंख्यातवें भाग अवधि ज्ञान होता है, वह पारभविक समझना । तद्भव सम्बन्धी अवधि ज्ञान पीछे से प्रारंभ होता है । (५२७-५२८)
मृदङ्गाकृति रित्येवं वैमानिकावधिर्भवेत् । ऊर्ध्वायतो मृदङ्गोहि, विस्तीर्णो ऽथः कृशो मुखे ॥५२६ ॥
वैमानिक देवताओं का अवधि ज्ञान मृदंग-वाद्य विशेष आकृति के समान होता है । जैसे मृदंग ऊंचाई में लम्बा होता है, मुखं के तरफ छोटा और नीचे चौड़ाविस्तार वाला होता है ! (५२६)
स्थितिमानमथ द्वैधं, जघन्योत्कृष्ट भेदतः । सौधर्मे शान देवानां, प्रति प्रतरमुच्यते ॥५३०॥
देवों की स्थिति उत्कृष्ट और जघन्य दो प्रकार से होती है । उसमें सौधर्म और ईशान देवों का आयुष्य प्रत्येक प्रतर का कहने में आता है । (५३०)
एकस्य सागरस्यांशाः, प्रकल्पयन्ते त्र्योदश । प्रथम प्रतरे भागौ, ताद्दशौ द्वौ परा स्थितिः ॥५३१॥ द्विती प्रतरे भागाश्चत्वारस्ताद्दशाः स्थितिः । तृतीये षट् चतुर्थेऽष्टौ, पन्चमे च लवादश ॥५३२॥