________________
(३७३)
तथोक्तं संग्रहणी वृत्तौ - "नाणा गारो तिरिय मणु एषुमच्छा सयंभूरमणेव। तत्थ वलयं निसिद्धं तस्य पुण तयंपि होज्जाहि ॥५२२॥"
संग्रहणी की वृत्ति में कहा है - "तिर्यंच और मनुष्य का अवधि ज्ञान स्वयं भूरमण के मत्स्य के समान विविध प्रकार की आकृति वाला होता है । मछली गोलाकार नहीं होती, जबकि अवधि ज्ञान में वलयाकार भी होता है । (५२२)"
वैमानिकानां सर्वेषां, जघन्योऽवधि गोचरः । अङ्गुलासययभागमानो ज्ञेयो मनस्विभिः ॥५२३॥
वैमानिक सर्व देवताओं का अवधि ज्ञान का जघन्य विषय बुद्धिशाली मनुष्य से अंगुल असंख्यातवे भाग प्रमाण में जानना । (५२३)
ननु सर्व जघन्योऽसौ, नृतिर्यक्ष्वेवं संभवेत् । सर्वोत्कृष्टो नरेष्वेव, राद्धान्तोऽयं व्यवस्थितः ॥२४॥
यहां शंका करते हैं कि अवधि ज्ञान का सर्व जघन्य विषय अंगुल का असंख्यातवां भाग तो मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है और अवधि ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट विषय मनुष्यों में ही होता है, यह सुनिश्चित सिद्धांत है । (५२४)
तथोक्तं - "उक्कोसोमणुएसुं मणुस्स तेरिच्छिएसु अ जहनो" ति ।
आगम में कहा है कि - "उत्कृष्ट अवधि मनुष्य में होता है और जघन्य अवधि ज्ञान मनुष्य और तिर्यंच में होता है ।"
कथं वैमानिकानां तत्, प्रोक्तः सर्वजघन्यकः । अङ्गलासंख्येयभागमात्रोऽथात्र निरु पयते ॥५२५॥
यह सिद्धांत होने से ही प्रश्न उठता है कि - वैमानिक को पूर्व कहे अनुसार सर्व जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग अवधि ज्ञान यहां किस तरह निरुपण करते हैं. ? (५२५)
केषांचिदिह देवानमुत्पत्तौ ताद्दशोऽवधिः । भवेत्याग्भव संबंधी, स जघन्योऽत्र दर्शितः ॥५२६॥