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________________ ( ३७२ ) सौधर्म और ईशान देवलोक में इन्द्र और इन्द्र के सामानिक देव आदि जो उत्कृष्ट स्थिति वाले होते हैं, वे अधो दिशा में रत्नप्रभा पृथ्वी के सर्व अधो विभाग तक अपने योग्य रूपी पदार्थ को अवधि लोचन से देखते हैं । तिर्च्छा दिशा में असंख्य द्वीप समुद्र को देखते हैं और ऊर्ध्व दिशा में अपने-अपने विमान के शिखर की ध्वजा तक देख सकते हैं । (५१४- ५१६) अनुत्तरान्ताः सर्वेऽप्यसंख्येयान् द्वीप वारिधीन् । तिर्यक् प्रपश्यन्त्यधि काधिकान् किन्तु यथोत्तरम् ॥५१७ ।। अनुत्तर विमान तक के सभी देवता तिर्च्छा असंख्य द्वीप समुद्र में जा सकते हैं, परन्तु सौधर्म आदि से आगे देवता अधिक से अधिक देख सकते हैं । (५१७) वैमानिकानां यद्धोऽवधिर्भूम्ना विज्भ्भते । भवनेशव्यन्तराणामूर्ध्वं भूम्ना प्रसर्पति ॥५१८ ॥ ज्योतिषां नारकणां तु तिर्यग् भृशं प्रसर्पति । नृतिरश्चामनियतदिक्को नाना विधोऽवधिः ॥५१६॥ वैमानिक देवों के अवधि ज्ञान का विस्तार नीचे नरक पृथ्वी के विषय में बहता है । जब भवनपति व्यंतर को अवधि ज्ञान का विस्तार ऊर्ध्व दिशा में बढ़ है ज्योतिष्क और नारक का अवधि ज्ञान तिर्च्छा दिशा में विस्तार होता है । मनुष्य और तिर्यंचों का अनियत दिशा का और विविध प्रकार का अवधि ज्ञान होता है । (५१८-५१६) स्वयंभूरणम्भोधौ, यथा मत्स्या जगद्गतैः । भवन्ति सर्वैराकारै नृ तिर्यगवधिस्तथा ॥ ५२० ॥ मत्स्यास्तु वलयाकारा, न भवेयुरयं पुनः । संभवेद्वलयाकारो ऽप्यसौ नानाकृतिस्ततः ॥५२१॥ स्वयं भूरमण समुद्र के अन्दर रही मछली जैसे जगत के सर्व आकार से होती है । वैसे मनुष्य और तिर्यंच की अवधि भी सर्व आकार से होती है"। मत्स्य तो गोलाकार के नहीं होते परन्तु अवधि ज्ञान गोलाकार से भी होता है । इसलिए अवधि ज्ञान विविध प्रकार की आकृति वाला कहा है । (५२०-५२१ ) ,
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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