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.... (३७१) . केचित्वल्पर्द्धिका देवा, यावच्चत्वारि पन्च वा । देवावासानतिक्रम्य, स्वशक्त्या परतस्ततः ॥५१०॥ गन्तुं न शक्नु वन्त्यत्य साहाय्यात् शक्नुवन्त्वपि । महर्द्धिकानां मध्येऽपि, नैवामी गन्तुमी शते ॥११॥
कई अल्प ऋद्धि वाले देवता चार से पांच देवा वास से अधिक स्वशस्ति से नहीं जा सकते हैं । अन्य की सहायता से भी जा सकते हैं । किन्तु महा ऋद्धि वाले देवताओं के पास में नहीं जा सकते हैं । (५१०-५११)
अल्पार्धिकानां मध्ये तुं सुखं यान्ति महर्द्धिका । समर्द्धिकानां मध्ये चेद्यियासन्ति समर्द्धिकाः ॥१२॥ तदा विमोह्य महिकाद्यन्धकारविकुर्वणात् । अपश्यत् इमान् देवानातिकामान्ति नान्यथा ॥५१३॥
अल्प ऋद्धि वाले देवताओं के पास में महर्द्धिक देव सुखपूर्वक जा सकता है । समान ऋद्धि वाले देवता समान ऋद्धि वाले के पास में जाने की इच्छा करते हैं तो धूम्मस (धुंआ) आदि का अंधकार बनाकर वह देवता न देखे इस तरह अतिक्रमण करता है । अन्यथा नहीं करता है । (५१२-५१३)
तथोक्तं - "आतिड् ढीएणं भंते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवासं तराई विइक्कंते तेण परं परिड्ढीएणं" इत्यादि भगवती दशम शतक तृतीयो देशके। ___ तथा कहा है कि - हे भगवान ! अल्प ऋद्धि वाले देवता चार-पांच देवावास (स्वर्गलोक) तक जा सकता है । उसके बाद ऊपर ऋद्धि के बल से जा सकता है । इत्यादि श्री भगवती सूत्र के दसवें शतक के तृतीय उद्देश में कहा है ।
सौधर्मेशानयोर्देवलोकयोरथ नाकिनः । उत्कृष्ट स्थितयः शकशकसामानिकादयः ॥५१४॥ रत्न प्रभायाः सर्वाधोभागं यावदधो दिशि । स्वयोग्यं मूर्तिमद् द्रव्यं, पश्यन्त्यवधिचक्षुषा ॥१५॥ तिर्यदिशि त्वसंख्ये यान्, पश्यन्ति द्वीप वारिधीन् । ऊर्ध्वं स्वस्व विमानानां चूलिकाग्रध्वजावधि ॥१६॥