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इसलिए हे बन्धुवर्य ! तुम जाओ, तेरा कल्याण हो । किसी समय याद. करना और अपनी महिमा जगत में फैलाना कि जिससे अपयश दूर हो जाय उसके बाद उसके भाई प्रति प्रेम से विमान में लक्ष्मी सहित पीताम्बरी हाथ में चक्र धारण करने वाले और बलदेव जी के साथ में वासुदेव कृष्ण का रूप बनाया था और प्रसिद्ध किया कि इस द्वारिका को कृष्ण ने ही बनायी थी और उन्होंने ही खत्म कर . ली है । कयोंकि करने में और हरण करने में जगदीश्वर श्री हरिकृष्ण ही समर्थ हैं । इसलिए संसार भोगने की इच्छा वाले को तथा मोक्ष प्राप्ति की इच्छा वाले को इस कृष्ण वासुदेव की सेवा करनी चाहिए । इस तरह से भरत क्षेत्र में आकर बलभद्र ने सर्वत्र उद्घोषणा की । इस प्रकार से पृथ्वी तल पर सर्वत्र कृष्ण जी की महिमा को बढाकर बलभद्र देव अपने स्थान पर गया । (५०१-५०५) ..
इत्थमेव च सीताया, जीवोऽच्युतसुरेश्वरः । गत्वाऽऽशु देवरप्रेम्णा, चतुर्था नरकावनीम् ॥५०६॥
यद्धयमानौ मिथः पूर्ववैराल्लक्ष्मणरावणो । . ___ युद्धान्नयवर्तयुद्धर्मवचनैः प्रतिबोधयन् ॥५०७॥
इसी ही प्रकार से सीता जी के जीव ने जो अच्युतेन्द्र बना था उसने देवर प्रति प्रेम होने से चौथे नरक में शीघ्रमय जाकर परस्पर पूर्व से वैर के कारण से युद्ध करते लक्ष्मण और रावण को रोका और धर्म के वचन कहकर उन्हें प्रतिबोध दिया है । (५०६-५०७)
पन्चमाङ्गेऽपि सप्तमया, अधस्ताद्देवकर्तृकम् । ऊंचेऽब्दवर्षणादिनि, तत्राप्येषां गतिः स्मृता ॥५०८॥
पांचवे अंग श्री भगवती सूत्र में भी कहा है कि - सातवीं नरक के नीचे देवकृत वर्षा आदि का वर्णन आया है इससे वहां भी देवताओं की गति कही है ! (५०८). .
तथाहु :- अस्थि णं भंते ! इमीसे रमणप्पहाए अहे उराला वलाहया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति ? हंता अत्थि, तिन्निवि पकरेंति देवोऽवि असुरोऽवि नागोऽवि, एवं दोच्चाए पुढवीए माणियव्वं, एवं तच्चाए पुढवीए