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प्रकार से अभिग्रह करके तुंगिक पर्वत ऊपर तप करने लगे, और वन के प्राणियों को बोध देते थे । वहां रहते एक समय रथकार ने उनको आहार दिया, हिरण उनकी अनुमोदना करता है इतने में वृक्ष की शाखा उनके ऊपर गिर गयी और तीनों मरकर एक साथ में ब्रह्मलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए । (४६२ से ४६७)
बलदेव सुरः सोऽथ, प्रयुक्तावधि लोचनः । भ्रातरं नरके द्दष्ट्रवोत्सुकस्तत्र द्रुतं गतः ॥४६८॥
देवात्मा रूप में उत्पन्न हुए बलदेव जी अवधि ज्ञान रूपी आंख द्वारा अपने भाई कृष्ण वासुदेव को नरक में देखकर, उत्सुक बने जल्दी से वहां गये । (४६८)
तमुद्दिधीर्षुर्नरकादवोचत् केशवः सुरम् । भ्रातरेवं भृशं पीड्ये, सूतपातं पतत्तनु ॥४६६॥ मया कृतानि कर्माणि, भोक्तात्यानि मयैव हि । वचः किमन्मथा तस्याद्यनेमिस्वामिनोदितम् ॥५००॥
कृष्ण महाराज जी को नरक में से उठाकर बाहर ले जाने की इच्छा वाले बलराम ने केशव वासुदेव ने कहा कि.- बन्धु ! इस तरह पारे के समान मेरा शरीर • नीचे गिर जाता है । इससे मुझे बहुत पीडा होती है । मेरे किए कर्म मुझे ही भोगने हैं । श्री नेमिनाथ भगवान ने कहा है वह वचन अन्यथा नहीं होता । (४६६-५००)
गच्छ बन्धो ! ततस्तुभ्यं भद्रं स्तात्कर्हिचित्स्मरेः । . प्रथयो महिमानं नो, दुर्यशो यन्निवर्तते ॥५०१॥
ततः स बान्धव प्रेम्णा, विमाने श्रीधरं हरिम् । ... पीताम्बरं चक्रपाणिं, विकृत्य हलभृद्युतम् ॥५०२॥
द्वारिके यमने नैव, कृ ताऽने नैव संहता । कर्तुं हर्तुं हरिरेव, क्षमोऽसौ जगदीश्वरः ॥५०३॥ तस्माद् भुक्तिं च मुक्तिंच, प्रेप्सुभिः सेव्यतामयम्। आगत्य भरतक्षेत्रे, सर्वत्रेत्युदधोषयत् ॥५०४॥ एवं सर्वत्र विस्तार्य, महिमानं महीतले । यथास्थानंसुरोऽयासीद्भदुःखेनदुःखितः ॥५०५॥