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________________ (३६६) एवं पूर्वभवस्नेह कार्मणेन वशीकृ ताः । नरकेष्वपि गच्छन्ति, केचिद्वैमानिकामराः ॥४६१॥ इस तरह से पूर्व जन्म के स्नेह रूपी कार्मण से वश हुए कई वैमानिक देवता नरक में भी जाते हैं । (४६१) तथाहि द्वारकाद्रङ्ग भङ्गे जराङ्गजेषुणा । मृत्वाऽन्तिमो वासुदेवस्तृतीयं नरकं गतः ॥४६२॥ रामोऽथ मोहात् षण्मासान्, व्यूढभ्रातृ कलेवरः। .. शिलातलाम्भोजवापादिभिर्देवेन बोधितः ॥४६३॥ भ्रातुदेर्हस्य संस्कारः कृत्वा संवेगमागतः । प्रवन्यनेमिप्रहितचारणश्रमणान्तिके . ॥४६४॥ . पारणाय ब्रजन् क्वापि, स्वरूपव्यग्रंया स्त्रिया । दृष्ट्रा घटभ्रमात्कूपे, क्षिप्यमाणं निजाङ्गजम् ॥४६५॥ वन एव मया स्थेयमित्यभिग्रहवान्मुनिः । । तुङ्गिकाद्रौ तपः कुर्वन्, वन्य सत्वान्नि बोधयन् ॥४६६॥ दत्ताहारोरथकृता, हरिणेनानुमोदितः । तरु शाखाहतस्ताभ्याम् सह ब्रह्मसुरोऽभवत् ॥४६७॥ पन्चभि कुलकं ॥ वह इस द्वारका नगरी का भंग हुआ उसके बाद जरा कुमार के बाण से अन्तिम वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज मरकर तीसरी नरक में गये, और कृष्ण के बड़े भाई बलदेव ने भाई का कलेवर शरीर को मोह के कारण छ: महीने तक वहन किया और देव ने उनको शिला तल पर कमल बोने की क्रिया आदि द्रष्टान्तों से बोध दिया उसके बाद भाई के देह का अग्नि संस्कार करके संवेग प्राप्त किया । श्री नेमीनाथ भगवान ने चारण ऋषि को वहां भेजा और बलदेव ने उनके पास दीक्षा अंगीकार की, पारणे के लिए किसी स्थान पर जाते थे उस समय बलदेव मुनि के रूप में एकाग्रचित्त होकर कोई स्त्री घडे के भ्रम से अपने बालक को कुएं में डालते देखकर, मेरा रूप अनर्थ का कारण होने से 'मुझे' वन में ही रहना चाहिए ।' इस
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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