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________________ (३६५) से किसी देवियों के समूह के कौतुक से मनुष्य की अति दुर्गन्ध युक्त इस मनुष्यलोक में श्री अरिहंत परमात्मा के पुण्य के गुण से आकर्षित होकर उत्सुकतापूर्वक क्षणवार में आते हैं । (४८२-४८५) महात्मनां महर्षीणां, यद्वोत्कृष्टतपस्विनाम् । माहात्म्यमुद्भावयितुमिहायान्ति सुधाभुजः ॥४८६॥ अथवा महात्मा, महान साधु पुरुष और उत्कृष्ट तपस्वियों के महात्म्य के प्रभाव के विस्तार से यहां देवतां आते हैं । (४८६) अश्रद्दधाना यदिवा साधु श्राद्धादिसद्गुणान् । सम्यग्वर्णितास्तेऽत्रायान्ति तास्तान् परीक्षि तुम ॥४८७॥ अथवा सम्यग्द्दष्टि आत्माओं द्वारा वर्णन करते साधु अथवा श्रावक आदि के सद्गुणों की श्रद्धा नहीं करते वह देवता उन गुणों की परीक्षा करने के लिए यहां मनुष्यलोक में आते हैं । (४८७) यद्वा तादृक पुण्यशालिशालिभद्रादिवभृशम् ।। पुत्रादीनां प्रेमधाम्नां स्नेहोरेकैर्वशीकृताः ॥४८८॥ गोभद्रादिवदागत्य, नित्यं नव नवैरिह । दिव्यभोगसंविभागैः, स्नेहं सफलयन्ति ते ॥४८६॥ ____ अथवा तो इस प्रकार के पुण्यशाली शालिभद्र समान प्रेम पात्र पुत्रादि के स्नेह की अधिकता से वश हुए गोभद्रादि देव के समान वह देवता यहां आकर नित्य नयी-नयी मांग उपभोग सामग्री देकर पुत्रादि स्नेह को सफल करते हैं । (४८८-४८६).. .. . यद्वा प्रागुक्तवचनस्मरणाद्विस्मृतापराः । स्वान् बोधयितु मायान्त्याषाढाचार्यन्त्य शिष्यवत् ॥४६०॥ अथवा तो पहले दिये वचन को याद करके अपने आत्मीय जन को बोध देने के लिए (पूर्व शिष्य भूल जाने नहीं आए परन्तु) अषाढाचार्य का अन्तिम शिष्य जैसे यहां आता है । (४६०)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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