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________________ (३६४) जान्नपि स तत्रेष्टं, यथा गन्तुं न शक्नुयात् । तहुर्गन्धपराभूति संकोचित विक् णिकः ॥४८०॥ तथा भूयः स्मरन्तोऽपि, नृक्षेत्रे पूर्व बान्धवान् । दुर्गन्धाभीभ वादत्र, न तेऽभ्यागन्तुमीशते ॥४८१॥ पन्चभि कुलकं ॥ तथा मल मूत्र श्लेष्म से पूर्ण कीड़े मक्खी से उभाडते हैं चारों तरफ अति चलप सैंकड़ों कृमि और कीड़े के कुए समान विष्टा के घर में (संडास-पाख़ाना में) रहकर कोई मित्र सद्दश मनुष्य को मित्र कहे कि - तुम यहां आओ, थोड़े समय खडे रहो, मैं कुछ कहता हूं । इस तरह अनेक बार बुलाए फिर भी नये-नये स्नान किए भोजन किया हुए, चंदन, कपूर कस्तूरी से विलेपन किए मनुष्य उस मित्र को इष्ट जानने पर भी दुर्गन्ध के पराभव से संकोच वाले बने और मुख को बिगाड़ते वहां नहीं जा सकते है, वैसे ही मनुष्य क्षेत्र के पूर्व बन्धु जन को बारम्बार याद करने पर भी दुर्गंध के पराभव से वह देव इस मनुष्य लोक में नहीं आ सकते हैं । (४७७-४८१) सत्यप्येवमति प्रौढपुण्यप्राग्भारशालिनाम् । . श्रीमतामह तां तेषु क्लयाणके षु पन्चसु ॥४८२॥ मरुताश्वत्थपणे भर्क णकम्प्रनिजासनाः ।, स्वश्रद्धातिशयात्के चिद्देवेन्द्रशासनात्परे ॥४८३॥ मित्रानुवर्तनात्के चित्पत्नी. प्रेरणया परे । स्थितिहेतोः परे देव देवीसंपातकौतुकात् ॥४८४ ॥ क्षणा देवाति दुर्गन्धमपि लोकं नृणामिमम् । अर्हत्पुण्यगुणाकृष्टा, इवायान्युत्सुकाः स्वयभू ॥४८५॥ त्रिभि विशेषकं ।। इस तरह होने पर भी अत्यन्त प्रबृद्ध-षौढ पुण्य के समूह से शोभते श्री अरिहंत भगवान के पांच कल्याणको में वायु से कम्पायमान, पीपल का पत्ता अथवा हाथी कान के समान अपना आसन कम्पायमान होने से इन्द्र कोई देवता अपनी श्रद्धा के अतिशय से किसी देवेन्द्रों की आज्ञा से किसी-किसी मित्र के अनुसरण-अनुकूल आचरण करने से किसी पत्नी की प्रेरणा से किसी आचार धर्म
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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