________________
(३६३)
जब मनुष्य क्षेत्र में नर और तिर्यंच अल्प होते हैं, उस समय ऊर्ध्वगामी दुर्गंधी पुद्गल अल्प होने से ऊर्ध्वगामी जाते पुद्गल द्वारा चार सौ योजन तक, एक दूसरे पुद्गल को पूर्व कहे अनुसार दुर्गन्धमय बना देते हैं । (४७४-४७५)
एवं परं योजनेभ्यो, नवभ्यो गन्ध पुद्गलाः । . कथं स्युर्घाण विषया, नैषा शङ्काऽपि संभवेत् ॥४७६ ॥
नौ योजन से दूर रहे गन्धा पुद्गल घ्राणेन्द्रिय के विषय किस तरह बन सकती है ? ऐसी शंका भी संभव नहीं हो सकता है । (४७६)
उक्तं च - "चत्तारि पंच जोअण सयाइं गधो य मणुअलोअस्स। - उछ्ळे वच्चइ जेणं नहु देवां तेण आवंति ॥१॥" . शास्त्र में कहा है - चार सौ अथवा पांच सौ योजन तक ऊपर मनुष्य लोक को दुर्गन्ध पहुंचती है । इसलिए देवता यहां नहीं आते ।
उपदेशमाला कर्णिकायां तु -
"ऊर्ध्व गत्या शतान्यष्टौ, सहस्रमपि कर्हिचित् । . मानां याति दुर्गन्धस्तेनेहायान्ति, नामराः ॥१॥" इत्युक्तमिति ज्ञेयं -
श्री नागेन्द्र गच्छीय आचार्य श्री विजय सेन सूरि जी के शिष्य श्री उदय प्रभचार्यकृत उपदेश माला की कर्णिका में तो कहा है - मृत्यु लोक की दुर्गन्ध ऊंची आठ सौ योजन अथवा कभी हजार योजन तक भी जाती है। इसलिए देवता यहां नहीं आते हैं। इस तरह कहा है वह जानना चाहिए । (१)
तथा च - मल मूत्र श्लेष्म पूर्णे मक्षिका कोटि संकटे ।
. समन्ततोऽतिचपल कृमिकीटशतावटे ॥४७७॥ पुरीषसदने स्थित्वा मित्रकल्पेन केनचित् । एहि मित्र ! क्षणं तिष्ठ, किन्चिद्वच्मीत्यनेकशः ॥४७८॥ आहूयेत जनः कश्चित् सद्यः स्नातः कृताशनः । कृतचन्दनकर्पूरक स्तृर्यादि विलेपनः ॥४७६॥