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(आसक्त) हो जाता है ३- देवलोक में नये उत्पन्न हुए देव देवलोक में दिव्य . कामभोगी में मुर्छित,गृद्ध, फंसा हुआ और वैसे ही अध्यवासित होता है, फिर भी उन देवों को इस तरह होता है कि -मृत्यु (मनुष्य) लोक में मैं अभी जाता हूं, मुहूर्त के बाद जाऊंगा, परन्तु वहां इतने समय में अल्प आयुष्य वाले मनुष्य कालधर्म (मृत्यु) हो जाती है ।' इत्यादि ।
तथाऽस्य नरलोकस्य, दर्गन्धोऽपि प्रसर्पति । नाना मृतक विण्मूत्राद्यशुचिप्रभवो महान् ॥४७०॥ . .
तथा इस मनुष्यलोक के अलग-अलग प्रकार के मुरदे, विष्टा मूत्रादि की अशुचि से उत्पन्न हुई भयंकर दुर्गन्ध ऊपर के विभाग में फैलती है । (४७०). .
तत्राप्यजितदेवादिकालेऽति प्रचुरा नराः । तथा भवन्ति तिर्यश्चः क्षेत्रेषु निखिलेष्वपि ॥४७१॥.. तदा मूत्रपुरीषादिबाहुल्यात्पूति पुद्गलाः । . ऊर्ध्वं यान्तो वासयन्ति, पुद्गलान परापरान् ॥४७२॥ योजनानां शतान्येवं, पन्च यावत्परैः परैः । . दूष्यन्ते पुद्गला जीवा, इवोत्सूत्र प्ररूपकैः ॥४७३॥
उसमें भी श्री अजितनाथ भगवान के समय में मनुष्य और तिर्यंच प्रत्येक क्षेत्रों में अति प्रचुर बहुत अधिक प्रमाण में होते हैं । उस समय में मूत्र और विष्टा की अधिक मात्रा होने से दुर्गन्धी पुदगल ऊपर जाता है और अन्य से अन्य पुद्गलों को भी वासित (दुर्गन्धमय) कर देता है। इस तरह से एक दूसरे पुद्गलों को दुर्गन्धमय होते हुए परम्परा से पांच सौ योजन दुर्गन्ध से पुद्गल वासित होते हैं । जिस तरह उत्सूत्र का कथन करने से जीव मित्थात्व होता है और दूसरे को भी वैसा । बनाता है वैसे यही पुद्गल की सोहबत दूसरे पुद्गल को दुर्गन्धमय बनाती है । (४७१-४७३) .
यदा तु नरतिर्यच्चो, नरक्षेत्रे स्युरल्पकाः । तदा पूतिपुद्गलानामल्पत्वादूर्ध्वगामिनाम् ॥४७४ ॥ चतुः शती योजनानां यावत्तैरपरापरैः । । व्रजद्भिर्ध्वं भाव्यन्ते, प्रोक्तयुक्त्यैव पुद्गलाः ॥४७५॥