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जाता है । क्योंकि इस मनुष्य लोक में प्रायः कर मनुष्यों का अल्प आयुष्य होता है। (४६८)
किंच , प्राग्भवबन्धूनां ताद्दक्पुण्याद्यभावतः । नागन्तुमीशतेऽत्राषाढाचार्याद्य भावतः ॥४६६॥
तथा पूर्व जन्म में सम्बन्धी इस प्रकार के पुण्य प्रभाव के अभाव के कारण वह देव यहां नहीं आ सकता । अषाढा चार्य के आद्य शिष्य के समान समझना । (४६६) ___तथोक्तं स्थानाङ्गे - "तिहिं ठाणेहि अहुणोववन्ने देवे देव लोगेसु इच्छेज्जा माणुसंलोगंहव्वप्रागच्छित्तए,णोचेवणंसंचाएतिहव्वाभागच्छित्तए, अहुणोव वन्ने देवे देवलोए दिव्वेसु काम भोएसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अझोववण्णे, से णं माणुस्सए काम भोए को आढाति नो परि० नो अटुं बधइ नो नियाण पक० नो ठितिपगप्पं क० १. अहुणोवन्ने देवे देवलोए सु दिव्वेसु कामभोएसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अन्झोववन्ने तस्स णं माणुस्सए पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ दिव्वे पेम्मे संकंते भवइ २. अहुणोव वन्ने देवे देव लोए सु • दिव्वेसु काम भोगेसु मुच्छिए जाव अझोववण्णे तस्स णं एवं भवइ इयण्हिं गच्छं, मुहूर्ता गच्छं तेणं कालेणं अप्पाउया मणुया काल धम्मुणा संजुता भवंति ३" इत्यादि। ... श्री स्थानांग सूत्र में कहा है कि - देवलोक में नये उत्पन्न हुए देव तीन कारण से मनुष्य लोक में जल्दी आने की इच्छा होने पर भी जल्दी नहीं आ सकते हैं। १- देवलोक में उत्पन्न हुए नये देवालोक में दिव्य कामभोग के विषय में मूच्छित-गृद्ध आसक्ति, उसमें फंसा हुआ और इसके ही अध्यवसाय वाला होता है, इससे वह देव मनुष्य सम्बन्धी कामभोग को नहीं चाहता है, मनुष्य सम्बन्धी कामभोग का विचार भी नहीं करता । मनुष्य सम्बन्धी कामवासना का आग्रह नहीं करता, मनुष्य सम्बन्धी कामभोग का नियाण-निदान नहीं करता कि वहां स्थिति प्रकल्प स्थिरता नहीं करता है । २- देवलोक में नया उत्पन्न हुआ देव लोक में दिव्य कामभोग में मूर्च्छित गृद्ध, (लोभी) उसमें फंसा हुआ और उसका ही विचार वाला होने से, उनको मनुष्य सम्बन्धी प्रेम नाश हो जाता है और दिव्य प्रेम संक्रान्त