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________________ ( ३६० ) द्रष्टुं दर्शयितुं स्वीयदिव्यसंपत्तिवैभवम् । तदागत्यार्गलायन्ते ऽनर्गलाः स्वर्गयोषितः ॥४६३॥ किसी समय उनको पूर्व जन्म के उपकारी माता, पिता, स्नेही बन्धु, गुरु शिष्य, प्रिया, पुत्र आदि को देखने के लिए तथा अपनी दिव्य संपत्ति को दिखाने का उत्साह होता है । उस समय निर्बन्ध प्रेम धारण करने वाली अप्सराएं आकर देव को बन्धन रूप होती है । अतः जाने केलिए तैयार होते उस देव को जाते हुए. को रोकती है। (४६२-४६३) किमेतदायक बले, मक्षिकापतनोपमम् । आरब्धं क्षणमप्येकं, त्वां विना प्राणिमः कथम् ? ॥४६४ ॥ अद्यापि ताद्दश: स्नेहस्तासु पूर्वप्रियासु चेत् । तदाऽस्मान् कृत्रिम प्रेम्णा, कदर्थयसि नाथ किम् ? ॥४६५ ॥ अथ: यास्यथ तन्नाट्यमिदमादिममङ्गलं । द्दष्टवा यथेच्छं गच्छन्तु, किं रूध्याः करिणः करैः ? ॥४६६ ॥ और वे इस तरह कहती हैं- पहले ही कौर में मक्षिका पात समान यह क्या कर रहे हो ? तुम्हारे बिना हम एक क्षण भी किस तरह जी सकते हैं ? (४६४) यदि अभी भी तुम्हे पूर्व पत्नियों में ऐसा ही स्नेह हो तो हे कृपा नाथ ! कृत्रिम प्रेम द्वारा हमारी कदर्थना (दुर्गति) किसलिए करते हो ? ( ४६५) फिर भी आप जाते हो तो प्रथम मंगल रूप इस नाटक को देखकर इच्छानुसार जाओ । क्योंकि हाथ से कोई हाथी रूक नहीं सकता है ? (४६६) 1 इत्यादि प्रेम संदर्भगर्भितैस्तद्वचो गुणैः । नियन्त्रितास्तद्दाक्षिण्यात्, तत्रैते ददते मनः ॥४६७॥ इत्यादि प्रेम गर्भित वाणी से फंसा हुआ वह देव उन देवांगनाओं के प्रतिदाक्षिण्याता से वहां मन देता है । (४६७) तताऽवसमाप्त्या तु पूर्व संबन्धिनां नृणाम् । भवा भवन्ति भूयांसः प्रायः स्वल्पायाषामिह ॥४६८॥ उस नाटक की समाप्ति हो, वहां तो पूर्व सम्बन्धी मनुष्यों का बहुत जन्म हो
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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