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________________ (३५६) एकैकस्मिन्नाटयकाम क्रीडा गोष्ठयादिशर्मणि । यात्यविज्ञात एवाशु, कालो भूयान्निमेषवत् ॥४५८॥ एकएक नाट्य-काम क्रीड़ा अथवा गोष्ठि आदि सुख के अन्दर खबर नहीं पड़ती है, उनकी आंख के पलकारे के समान बहुत काल व्यतीत हो जाता है। (४५८) तथाह छुटित गाथा - "दो वास सहस्साइंउड्ढ अमराण होइ विसय सुहं।। पण सयपण सयहीणं जोइसवण भवण वासीणं ॥४५६॥" फुटकर मिली गाथा कहते हैं - उर्ध्ववासी देव-विमानिक देवों का एक विषय सुख नाटक आदि एककार्य भी दो हजार वर्ष तक चलता है । इसके बाद ज्योतिष, वाण, व्यंतर, भवनपति का वह एक-एक कार्य पांच सौ वर्ष कम होता है। अर्थात् ज्योतिषी का कार्य १५०० वर्ष, वाण व्यंतर कार्य १००० वर्ष और भवनपति का कार्य ५०० वर्ष तक चलता है । (४५६) . एतं तत्तन्निधुवमसंगीतप्रेक्षणादिभिः । . सदाप्यसंपूर्णकार्या, न तेऽत्रागन्तुमीशते ॥४६०॥ इस प्रकार से उन काम क्रीड़ा, संगीत और नाटक आदि के कारण हमेशा उनका कार्य अधूरा ही रह जाता है । इससे देवा यहां मृत्यु लोक में नहीं आ सकते हैं और नहीं इच्छा होती है । (४६०) .... किंच - ततद्विमाना भरण देवाङ्गनादिवस्तुषु । संक्रान्तनव्यप्रेमाणो,नैतेऽत्रागनतुमीशते ॥४६१॥ इसके उपरांत उस विमान के अन्दर आभूषण और देवांगना आदि में नया नया अति गाढ प्रेम उत्पन्न हो जाने से वे देव यहां नहीं आ सकते हैं उन्हें आने की इच्छा ही नहीं होती । (४६१) .. कदाचिदुत्सहन्ते चेत्पूर्वजन्मोपकारिणः । मातापितृस्निग्ध बन्धु गुरु शिष्य प्रिया ऽङ्गजान् ॥४६२॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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