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इस तरह से आहार करके देवता अप्सराओं द्वारा प्रारंभ किये नाटक आदि में मन को लगा देते हैं । (४५२)
कदाचिच्च जल क्रीडां, कदाचिन्मज्जन क्रियाम् । कदाचिच्च सुहृदगोष्ठी सुरवान्यनुभवन्त्यमी ॥४५३ ॥ कदाचिद्यान्ति सुहृदरां, वेश्मसु प्रेमनिर्भराः । तेऽपि नानुपसर्पन्ति, कृत्वाऽभ्युत्थानमादरात् ॥४५४॥ आसनं ददते हस्ते, घृत्वोपवेशयन्ति च । . योजितान्जलयः सत्कारयन्त्यम्बरभूषणैः ॥४५५॥ .
ये देवता किसी समय जल क़ीडा करते हैं तो कभी स्नान-क्रीड़ा को करते हैं, कभी मित्रों के साथ में गोष्ठी बातें सुखपूर्वक करते हैं, तो कभी प्रेम से भरे मित्र देवता के घर जाते हैं, और वह मित्र देवता भी आदरं पूर्वक खड़ा होकर उसके. सामने आता है, उसके बाद वह देव आसन देकर प्रेमपूर्वक हाथ पकड़ कर बैठता है और अंजलि जोड़कर वस्त्राभूषण से उनका सत्कार करता है । (४५३-४५५)
एवमागच्छ तां प्रत्युद् गमनं पर्युपासनम् । स्थितानां गच्छतां चानुगमनं रचयन्त्यमी ॥४५६॥
इस तरह आए तब सामने जाना, आने के बाद उचित सेवा करना और जाते समय में वापिस छोडने जाना इत्यादि वे देवता करते हैं । (४५६).
तथोक्तं - "अत्थि णं भन्ते ! असुर कुमाराणं सक्कारेति वा जाव पडिसंसाहणया ? जाव वेमाणि याणं ।"
'यहां प्रश्न किया है - हे भगवन्त ! असुर कुमार देवताओं का सत्कार-प्रति उपासना होती है ? उत्तर-यावत् वैमानिक देव तक यह विधि होते हैं ।'
ततो विनीतैस्तेर्मित्रदेवैः सह कदाचन । तेषामेव विमानेषु, क्रीडन्तः सुखमासते ॥४५७॥ .
इसके बाद कभी विनीत मित्रदेवों के साथ में क्रीड़ा करते सुखपूर्वक उनके विमान में रहते हैं । (४५७)