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________________ (३५६) प्राप्नुवन्तः परातृप्तिमाहारेणामुना सुराः । विन्दते परमानन्दं, स्वादीयोभोजनादिव ॥४४१॥ इस आहार से देवताओं को परम तृप्ति होती है, स्वादिष्ट भोजन के समान परमानंद को प्राप्त करते हैं । (४४१) अतएवाभिधीयन्ते, ते मनोभक्षिणः सुराः । प्रज्ञापनादिसूत्रेषु, पूर्वर्षिसंप्रदायतः ॥४४२॥ .. तथा :- "मणोयक्खिणो ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो।" इस कारण से ही प्रज्ञापनादि सूत्रों में पूर्वर्षि संप्रदाय से देवताओं को . मनोभक्षी कहा है । (४४२) प्रज्ञापना में कहा है कि - हे श्रमणायुष्य वह देव समूह मनोभक्षी कहा है।' आहार्य पुद्गलांस्तांश्च, विशुद्धावधिलोचनाः । अनुत्तरसुरा एव, पश्यति न पुनः परे. ॥४४३॥ आहार योग्य पुदगलों को विशुद्ध अवधि रूप लोचन वाले अनुत्तर विमान वासी देवता ही देख सकते हैं । अन्य देवता नहीं देख सकते हैं । (४४३) . सहस्राणि दशाब्दानां, येषामायुर्जघन्यतः । भवनेशव्यन्तरास्ते ऽहोरात्रसमतिक मे · ॥४४४॥ इच्छन्ति पुनराहारं, तथा स्तोकैश्च सप्तभिः । उच्छ्वसन्तिशेष काले, नोच्छ्वासोनमनोऽशनम् ॥४४५॥ जिन देवताओं का आयुष्य जघन्य से १० हजार वर्ष का हैं, उन भवनपति , और व्यन्तर देवता को एक अहोरात्रि के जाने के बाद आहार की इच्छा होती है और सात स्तोक प्रमाण समय व्यतीत होने के बाद श्वास लेते हैं, शेष काल में उन देवों का श्वासोच्छ्वास अथवा मनोआहार नहीं होता है । (४४४-४४५) .. दशभ्योऽब्दसहस्रेभ्यो, वर्द्धमानैः क्षणादिभिः । । किंचिदूनसागरान्तं, यावद्येषां स्थितिर्भवेत् ॥४४६॥ तेषां दिन पृथक्तवैः स्याद्वृद्धि भाग्योजनान्तरम्। मुहूर्तानांपृथक्त वैश्च,श्वासोच्छ्वासान्त'क्रमात् ॥४४७॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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