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अल्पर्द्धिकं तत्र देवं, रुष्टो देवो महर्द्धिकः । दुष्टपुद्गलनिक्षेपात् कुर्यात परवशं क्षणात् ॥४३२॥ ततश्च ग्रहिलात्माऽसौ यथा तथा विचेष्ट ते । द्वितीया द्विविधा तत्र, मिथ्यात्वात्प्रथमा भवेत् ॥४३३॥ अतत्वं मन्यते तत्वं, तत्वं चातत्वमेतया ।। चारित्र्यमोहनीयोत्था, परा तयाऽपि चेष्टते ॥४३४॥ भूताविष्ट, इवोत्कृष्टमन्मथादिव्यथातिः । यक्षावेशोत्था सुमोचा दुर्भोचा मोहनीयजा ॥४३५॥
वहां अल्प ऋद्धि वाले देव को महा ऋद्धि वाला देव क्रोध में आकर दुष्ट पुदगल डालकर क्षण में परवश बना देता है, इसके पागल समान बनकर वह देव महा मुश्किल से चेष्टा करता है । दूसरा प्रकार - मोहनीय प्रभा से दो प्रकार से उन्मत्तता होती है । एक मिथ्यां के उदय से दूसरी चारित्र मोहनीय के उदय से होती है । मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न हुई उन्मत्तता के कारण वह देव अतत्व को तत्व मानता है और तत्व को अतत्व मानता है । और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुई उन्मत्तता से भूताविष्ट हुए के समान कामदेव आदि की व्यथा से दुःखित बने चेष्टा करता है । यक्ष के आवेश से उत्पन्न हुई उन्मत्तसा तो सरलता से दूर कर सकते हैं, परन्तु मोहनीय कर्म से उत्पन्न हुई उन्मत्तता से मुश्किल से मुक्त हो सकता है । (४३२-४३५) . .
तथाई - "असुर कुमाराणं भंते ! कइविहे उम्माए पं० ? गोयम दुविहे प० एवं जहेवणेरतियाणंणवरं देवेवा से महिढिय तराए अशुभेपुग्गले पक्खि वेज्जा से णं तेसि असुभाणं पुग्गलाणं पक्खिवणताए, जक्खाएसं उम्मायं पाउणिज्जा, मोहणिज्जस्स वा सेसं तं चेव, वाणमंतर जोति सवेमाणि याणं जहा असुर कुमाराणं' भगवती सूत्रे ।
इस विषय में श्री भगवती सूत्र में कहा है - 'हे भगवन्तं ! असुर कुमार देवों को कितने प्रकार का उन्माद होता है इसके उत्तर में भगवान कहते हैं - हे गोतम! वह दो प्रकार से कहा है । जिस तरह से नरक के जीवों को होता है वैसे देवों में महर्द्धिक देव अशुभ पुद्गल को प्रक्षेप करते है, डाले हुए अशुभ पुद्गलों से वह