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________________ (३५३) संगम कराने वाली दिव्य स्त्रियों के शरीर में गये वह शुक्र पुद्गल चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना और स्पर्शन, इन सब इन्द्रिय रूप में बारम्बार और तुरंत परिणाम होते हैं, और परिणाम होने से वह शुक्र पुद्गल देवांगनाओं के रूप लावण्य के वैभव को तथा सौभाग्य और यौवन को उद्दिप्त प्रकृष्ट बनाता है । (४२५-४२८) तथा च प्रज्ञापना - "अत्थिणं भंते ! तेसिं देवाणं सुक्क पुग्गला ?हंता अस्थि,तेणं भंते ! तासिं अच्छराणंकीसत्ताए भुज्जो भुजो परिणभंति? गोयम !सोइंदि यत्ताए जावफासिंदियत्ताएइट्टत्ताइ कंतत्ताए मणुन्नताए मणामत्ताए सुभत्ताएसोहग्गरुवजोव्वणगुणलायणत्ताए,एयासिं भुज्जो भुज्जो परिणमंति" और प्रज्ञांपना सूत्र में कहा है - हे भगवंत ! देवता को शुक्र पुदगल होते हैं? भगवान ने कहा होता है । हे भगवन्त ! वह पुदगल अप्सराओं को किस तरह बारम्बार उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय तक पांचों इन्द्रिय रूप में तथा इष्ट रूप में, प्रिय रूप में मनोज्ञ रुप में मन-उन्मत्ता रूप में, शुभ रूप में, सौभाग्य रूप में, यौवन तथा लावण्य रूप में इन अप्सराओं को वह शुक्र पुद्गल बारम्बार उत्पन्न होता है।' . एवं के चित्सुरास्तीव मदनोन्मत्तचेतसः । • स्वनायिकोपीभोगेनातृप्ता: क्लृप्तापराशयाः ॥४२६॥ . 'वर्यचात्तुर्य सौन्दर्यपुण्याः पण्याङ्गना इव । । . . निजानुरक्ता अपरिगृहीता भुन्जते सुरीः ॥४३०॥ इस तरह से कोई देवता तीव्र काम की वेदना से उन्मत्त चित्त वाला बन अपनी नायिका को भोगने पर भी अतृप्त रहता है, इससे ही अन्य देवियों को भोगने की इच्छा वाला बना, श्रेष्ठ चतुराई और सौंदर्य से पवित्र बना अपने पर अनुराग वाली वेश्या के समान अपरिग्रहिता देवियों का सेवन करता है । (४२६-४३०) ... तथा एनमत्तता द्वेधा, देवानामपि वर्णिता । एका यक्षावेशभवा, मोहनीयोद्यात् परा ॥४३१॥ देवताओं की भी उन्मत्तता दो प्रकार की कही है । १- यक्ष के आवेश से उत्पन्न होती है, और २- मोहनीय के उदय से उत्पन्न होती है । (४३१)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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