________________
(३५२)
जाता है । सर्व अंगों में काय के कलेश की उत्पन्न हुई स्पर्श निवृत्ति को प्राप्त होते, तीव्र पुरुष वेद की वेदना वाला वह देवता तृप्त (शान्त) होता है । (४१५-४२१)
रतामृतास्वादलोलाः, कदाचिन्मदनोन्मदाः । मुग्धावत्कम्पनै (तिरू तैपसर्पणैः ॥४२२॥ . कदाचिच्चारुमध्या वल्लज्जाललित वेष्टितैः । कदाचित्प्रौढमहिला, इव वैयात्यवल्गितैः ॥४२३॥ . कदाचिद्रोषतोषार्दै, परुषेः पुरुषायितैः । . प्रत्याश्लेषप्रतिवचःप्रतिचुम्बनवल्गनैः ॥४२४॥ पारापतादिशब्दैश्च, द्वि गुणामुन्मदिष्णुताम् । जनयन्त्यश्चिरं भर्तुर्देव्योऽपि सुरतोत्सवैः ॥४२५॥ . शुक्रस्य वैक्रियस्याङ्गे संचारादखिलेसुखम् । आशादयन्त्यस्तृप्यन्ति, क्लिष्टस्त्रीवेदवेदनाः ॥४२६॥ पच्चभिः कुलकं ।।
मैथुन के अमृत सद्दश आस्वाद में चपल बनीं, काम के उन्माद वाली अप्सराएं कभी भोली-मुग्धा स्त्रियों के समान, भय, कंपन आवाज और आगे पीछे खिसकने द्वारा मुग्धा के समान आचरण करती है, तो कभी मध्या स्त्री के समान लज्जा से सुन्दर चेष्टा करके मध्या-नायिका समान आंचरण करती है, कभी प्रौढ महिला के समान नि:संकोचता से स्वतन्त्रता से (लिपट जाना) वल्गनादि करती है, कभी पुरुष समान कठोर रोष और तोषा वर्तन करती है, तो कोई प्रति आलिंगन, प्रति वचन, प्रति चुम्बन और वल्गन-लिपट जाती है, कभी कबूतर आदि जैसे शब्द करती हैं । ऐसी सब सुरत क्रीड़ाएं द्वारा देवियां भी देवों को बहुत काल तक मदोन्मत्तता को बढ़ाती जाती है । इस तरह महोत्सव से वैक्रिय शुक्र को सम्पूर्ण अंग में संचार होने से क्लिष्ट स्त्री वेद की वेदना को तृप्त करते हैं । (४२२-४२६)
ते शुक्र पुद्गला भुज्यमानदिव्यमृगीदृशाम् ।। चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वात्वगिन्द्रियतयाऽसकृत् ॥४२७॥ द्रुतं परिणमन्त्येते, रूपलावण्यवैमवम् । परभागं प्रापयन्ति, सौभाग्यं, यौवनम् तथा ॥४२८॥