________________
(३५०)
मनश्चिन्तितमात्रेण, सर्वाभीष्टार्थसाधकाः । वचनातिगसामाग्निग्रहानुग्रहक्षमाः ॥४०६॥ प्रयोजन विशेषेण, प्राप्ता अपि भुवस्तलम् । तिष्ठन्ति ते व्यवहिताश्चतुर्भिरङ्गलैर्भुवः ॥४१०॥
मन के चिन्तित करने मात्र से सर्व इच्छित अर्थ (कार्य) को सिद्ध करने वाले होते हैं, वचनातीत सामर्थ्य से निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ होते हैं. किसी प्रयोजन विशेष में पृथ्वी ऊपर आते हैं फिर भी पृथ्वी से चार अंगुलं ऊपर रहते हैं । (४०६-४१०)
वायुत्तरेशान दिक्षु, सेव्याः सामानिकैः सुरैः । . अग्नियाम्यानैर्ऋतीषु, पर्षद्भिस्तिसृभिर्युताः ॥४११॥
देवता की वायव्य, उत्तर और ईशान दिशा में रहने वाले सामानिक देवताओं से सेवा होती है और उनकी आग्नेय कोन, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में पर्षदा होती है । (४११)
पुरोऽग्रहमहिषीभिश्च, पृष्ठतोऽनीक नायकैः । सेव्याः समन्ताद्विविधायुधाढयैश्चात्मरक्षकैः ॥४१२॥
उन देवता के आगे अग्र महिषियां होती हैं, उनके पीछे सेनापति होते हैं और चारों तरफ विविध आयुध से युक्त आत्मरक्षक देवता सेवा करते हैं । (४१२)
सुस्वरै दिव्यगन्धवै र्गीतासु पदपतिषु । दत्तोपयोगाः सत्तालमूर्छ नाग्रामचारुषु ॥४१३॥ . अप्सरोभिः प्रयुक्तेषु, नाटयेषु दत्तचक्षुषः । अज्ञातानेहसः सौख्यैः, समयं गमयन्त्यमी ॥४१४॥ एकादशभिः कुलकं ॥
अच्छे स्वरपूर्वक गंधव देवों से गाते जाते, ताल मूर्छ के ग्राम से सुन्दर ऐसी पद पंक्तियां में उपयोग वाले और अप्सराओं के द्वारा नाटक को देखते कितना समय व्यतीत हो गया है उसे वे नहीं जानते उन देवों का सुखपूर्वक समय व्यतीत होता हैं । (४१३-४१४)