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(३४६) ये देवता चतुर पुरुषों के अंत करण के चमत्कार कर इस प्रकार की वाणी से सुन्दर शब्दवाली अर्ध मागधी भाषा में अपने भाव कहते हैं । (४०४)
तथाहु :- गोयम ! देवाणं अद्धमागहाए भासाए भासंति' भगवती पन्चमशतक चतुर्थोद्देशके लोके तु संस्कृत स्वगिंणां भाषेत्यादि ।'
भगवान महावीर प्रभु ने इस तरह कहा है - "हे गोतम ! देवता अर्ध मागधी भाषा से बोलते हैं ।" इस तरह श्री भगवती सूत्र के पांचवे शतक के चौथे उद्देश में कहा है । लोक में देवताओं की भाषा संस्कृत कहलाती है यह केवल लोक मान्यता ही है । असलियत नहीं है ।
प्रत्येक मङ्गो पाङ्गेषु रत्नाभ्रणभासुराः ।
अस्पृष्टकासश्वांसादिविविधव्याधिवेदनाः ॥४०५॥
देवताओं के प्रत्येक अंगोपांग ऊपर रत्न आभूषणे से प्रकाशमान होते हैं । और उनके श्वास-खांसी आदि विविध प्रकार की व्याधि वेदनाएं स्पर्श भी नहीं कर सकती । (४०५)
पुण्यनैपुण्य लावण्याः संदावस्थायि यौवनाः । अभङ्गकामरागार्दा, दिव्याङ्गना कटाक्षिताः ॥४०६॥ दिव्याङ्गरागसुरभीकृ तसर्वाङ्गशोभनाः । कामके लिकलाभ्यासविलासहासवेदिनः ॥४०७॥ स्वभावतो निर्निमेषविशेषललिते क्षणाः ।
अम्लानपुष्पदामानः स्वैरं गगनगामिनः ॥४०८॥
ये देव पवित्र, चातुर्य युक्त लावण्य वाले सदा स्थिर यौवन वाले अत्यंत काम राग से आर्द्र बने दिव्य अंगनाओं से कटाक्षित वने होते हैं, दिव्य अंगराग विलेपन से सुगंधित और सुन्दर शरीर वाले और काम क्रीडा के कला अभ्यास, विलास और हास्य को जानने वाले होते हैं, स्वभाव से ही निर्निमेष आंखे बंद हुए बिना विशिष्ट और ललित चक्षु वाले, सदा ताजी रही पुष्प की माला वाले और इच्छानुसारी गगन विहारी होते हैं । (४०६-४०८)