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________________ (३४५) हैं । इस तरह होने पर भी यदि मनुष्य जिनेश्वर देवा की पूजा को केवल आचार रूप में गिनता है उनको बोध किस तरह करवाना चाहिए ? जैसे चक्षु विहीन अंघजन को रजत और ताम्बे के भेद को बोध नहीं करा सकते हैं, वैसे उन्हें भी बोध नहीं करवा सकते हैं । (३८६-३६०) राजप्रशनीयसूत्रे यत्सूर्याभस्य सुपर्वणः । । विमानवर्णनं तस्योत्पत्तिरीतिश्च दर्शिता ॥३६१॥ माया तदनुसारेण, वैमानिक सुपर्वणाम् । विमानवर्णनोत्पत्ती, सामान्यतो निरूपिते ॥३६२॥ विशेषमुक्तशेषं तु, जानन्त्यशेषवेदिनः । गीतार्था निहिताना, यद्वा तद्वाक्यपारगाः ॥३६३॥ श्री राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव के विमान का वर्णन, उसकी उत्पत्ति का तरीका दिखाया है । उसके अनुसार मैंने वैमानिक देवताओं के विमान का वर्णन और उत्पत्ति का तरीका सामान्य रूप से वर्णन किया है । शेष रहा विशेष वर्णन तो सर्वज्ञ भगवन्त जानते हैं । अथवा भगवन्त के वाक्य के पारगामी अनर्थ को दूर करने वाले श्री गीतार्थ महामुनि जानते हैं .। (३६१-३६३) - देव्यो देवाः परेऽप्येवं, तत्तद्विमानवासिनः । जायन्ते स्वस्व शय्यायां, स्वस्व पुण्यानुसारतः ॥३६४॥ इस प्रकार से उस विमान में निवास करने वाले देव देवियां भी अपने अपने शय्या में अपने-अपने पुण्य अनुसार उत्पन्न होते हैं । (३६४) ...' . येय मुक्ता विमानानां, स्थिति स्तत्स्वामि नामपि । __. अच्युत स्वर्ग पर्यन्तं, सा सर्वाऽप्यनुवर्तते ॥३६५॥ विमानों का वर्णन तथा विमानों में स्वामी की स्थिति का वर्णन जो यहां किया है वह अच्युत स्वर्ग तक इस तरह से ही समान समझना चाहिए । (३६५) परतस्त्वहमिन्द्राणां न स्वामिसेवकादिका । स्थितिः काचित्सुमनसां कल्पातीता हि ते यतः ॥३६६॥ ६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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