SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३४४) उसके बाद अपने-अपने विमान के सिंघाड़े आकार के स्थान, त्रिकोन आकार के स्थान तथा उद्यानादि के स्थानों में अभियोगिक देवताओं द्वारा पूजा करते हैं । (३८४) अथैवंकृत कृत्यास्ते, ऐशानकोणसंस्थिताम् । नन्दा पुष्करिणीमेत्य, तस्याः कृत्वा प्रदक्षिणाम् ॥३८५॥ प्रक्षाल्य हस्तपादादि, विलसन्ति यथा रूचि । सभां सुधर्मामेत्यं प्राग्मुखाः सिंहासने स्थिताः ॥३८६॥ .. इस प्रकार से कार्य पूर्ण करके कृतकृत्य बने देवता ईशान कोन में स्थित नंदा पुष्करिणी जाकर उसकी प्रदक्षिणा देकर हाथ पैर आदि धोकर सुधर्मा सभा में आकर सिंहासन ऊपर पूर्वाभिमुख रहकर इच्छानुसार विलास करता है । (३८५-३८६). एवमत्रामुत्र लोके, हितावहं जिनार्चनम् । इति तत्रालोकमात्रात्प्रणमन्ति पुनः पुनः ॥३८७॥ इस प्रकार इस लोक और परलोक में श्री जिनेश्वर का पूजन हितकारी है, इस भावना से वहां दर्शन मात्र से ही बारम्बार नमस्कार करता है । (३८७) न नमन्ति न वा तानि स्तुवन्ति च मनागपि । लोकस्थित्या धर्मबुद्धय, कृतयो_न्तरं महत् ॥३८८॥ वे देव तीर्थंकर परमात्मा को नमन स्तवनं आदि करते हैं वह लोक स्थिति से नहीं करते परन्तु धर्मबुद्धि से करते हैं । क्योंकि धर्मबुद्धि से लोक स्थिति से किये कार्य में महान् अंतर होता है । (३८८) स्तुवन्ति नव्यैः काव्यैश्च, तथा शक्रस्तवादिभिः । शेषाणि तु स्थिति कृते, पूजयन्ति कुसुमादिभिः ॥३८६॥ सत्यमेवं स्थितिमेव, ये वदन्ति जिनार्चनम् । कथं ते लुप्तनयना, बोध्या रैताम्रयोर्भिदाम् ॥३६०॥ नये काव्य से तथा शक्र स्तवनादि से वे देवता जिनेश्वर परमात्मा की स्तुति करते हैं और अन्य मूर्तियों को अपने आचार के कारण से पुष्पों से पूजा करते
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy