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(३४३) कृत्वा सिंहासनस्यार्चा, मणिपीठकया सह । क्षुल्लकेन्द्र ध्वज स्याङ्कं कुर्वते ऽम्भः कुसुमादि भिः ॥३७८॥
उसके बाद मणि पीठिका सहित सिंहासन की पूजा करके छोटे ध्वज को कुसुमादि से उसकी पूजा करते हैं । (३७८)
कोशं प्रहरणस्याथ, समेत्य संप्रमृज्य च ।
खड्गादीनि प्रहरणान्यभ्यर्चयन्ति पूर्ववत् ॥३७६ ॥ फिर शस्त्र भंडार के पास जाकर उसकी प्रमार्जन कर तलवार आदि शस्त्रों की पूर्व के समान पूजा करते हैं । (३७६) .
सुधर्मा मध्यदेशेऽथ प्रकल्प्य, हस्तकादिकम् । देवशय्यां पूजयन्ति, मणिपीठिकया सहः ॥३८०॥
सुधर्मा सभा के मध्य भाग में पंजे का थापा (चिन्ह) करके मणिपीठिका सहित देवशय्या को वे देवता पूजा करते हैं । (३८०) . ततश्चैते सुधर्मातो, निर्यान्तो याम्यया दिशा ।
सिद्धायतन्वद् द्वारत्रयमर्चन्ति पूर्ववत् ॥३८१॥
उसके बाद सुधर्मा सभा के दक्षिण दिशा के द्वार से निकलते ये देव 'सिद्धयतन के समान तीन द्वारों की पूर्व के समान पूजा करते हैं । (३८१)
एवं हृदं सभाश्चान्याः स्व स्वोपस्करसंयुताः । व्यवसाय सभां चान्ते, पूजयित्वा सपुस्तकाम् ॥३८२॥ इस प्रकार से सरोवर को अपने-अपने परि कर युक्त अन्य सभाओं को और अन्त में पुस्तक सहित व्यवसाय सभा की पूजा करते हैं । (३८२)
व्यवसाय सभावर्ति प्राच्य पुष्करिणी तटात् । कुर्वते बलिपीठे ते, गत्वा बलिविसर्जनम् ॥३८३॥
उसके बाद व्यवसाय सभावर्ती पूर्व पुष्करिणी के तट से बलि पीठ ऊपर जाकर वे बलि विसर्जन करते हैं । (३८६)
स्वीय स्वीय विमानानां श्रङ्गाटक त्रिकादिषु । उद्यानादौ चार्चनिकां, कारयन्त्याभियोगिकैः ॥३८४॥