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(३४२) चैत्य को प्रदक्षिणा देकर उत्तर दिशा के द्वार पास रहकर नन्दा पुष्करिणी में जाकर पूर्व के समान पूजा करते हैं । (३७१)
उदीच्यान् केतु चैत्य द्रुस्तूपांस्तस्तप्रतिमाः क्रमात् । उदक्प्रेक्षामण्डपं चार्चयन्तिमुख मण्डपम् ॥३७२॥
उत्तर दिशा की ध्वजा, चैत्यवृक्ष, स्तूप और प्रतिमा को क्रमशः पूज्य करते है, फिर उत्तर दिशा के प्रेक्षा मंडप को मुख मंडप की पूजा करते हैं । (३७२)
ततो द्वारमौत्तराहं प्राच्यं द्वारं ततः क्रमात् । ' प्राच्यान्मुखमण्डपादीन् प्रपूजयन्ति याम्यवत् ॥३७३॥ . .
उसके बाद उत्तर दिशा के द्वार को पूजा करते हैं, फिर क्रमशः करते हुए पूर्व दिशा के द्वार मुख मंडप आदि दक्षिण दिशा के समान पूजा करते हैं ।। (३७३)
ततः सभां सुधर्मा ते, प्रविश्य पूर्वया दिशा । यत्र माणवकश्चैत्यस्तम्भस्तत्राभ्युपेत्य. च ॥३७४॥ आलोके तीर्थ कृत्सक्नां, प्रणता लोम हस्त कैः । प्रमार्जितादाददते, तानि वज़ समुद्रकात् ॥३७५॥ ततो लोमहस्तके न, प्रमृजयोदकघारया । प्रक्षाल्याभ्यर्च्य पुष्पाद्यै निक्षिपन्तिसमुद्रके , ॥३७६ ॥
उसके बाद वह नया उत्पन्न हुए स्वामी देवता पूर्व दिशा से सुधर्मा सभा में प्रवेश करके जहां माणवक चैत्य स्तंभ है वहां आकर तीर्थंकर परमात्मा के अस्थि को देखते ही नमस्कार करता है, मोर पिच्छ से वज्रमय डब्बे को प्रमार्जन करते है, उन अस्थियों को ग्रहण करता है मोर पिच्छ से उस अस्थि को प्रमार्जन कर अखण्ड धारा से प्रक्षालन करके पुष्पादि से पूजा करके डब्बे में स्थापना करते हैं । (३७४-३७६)
समुद्गकं यथा स्थानमवलम्ब्यार्चयन्ति च । पुष्माल्यगन्धवस्त्रैश्चैत्यस्तम्भं ततोऽत्र च ॥३७७॥ .
डब्बे को यथास्थान पर स्थापन करके पुष्प माला, सुगंधी चूर्ण और वस्त्र से चैत्य स्तंभ की पूजा करते हैं । (३७७)