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________________ (३४१) शेष दो द्वार में भी उत्तर दक्षिण द्वार शाखा को तथा प्रेक्षा मंडप के मध्य विभाग को उसके तीन द्वार को तथा मणि पीठिका सहित सिंहासन की पूजा करते हैं । (३६५) . निर्गत्यं दक्षिणद्वारा, ततः प्रेक्षणमण्डपात् । दाक्षिणात्यं महाचैत्यस्तूपमभ्यर्चयन्तिते ॥३६६॥ उसके बाद प्रेक्षा मंडप में से दक्षिण द्वार से निकल कर दक्षिण दिशा के बडे चैत्य स्तूप की वे देवता पूजा करते हैं । (३६६) तस्माच्चतुर्दिशं यास्तु, प्रतिमाः श्रीमदर्हताम् ।। तासामालोके प्रणामं कुर्वन्ति पश्चिमादितः ॥३६७॥ फिर चार दिशा में विराजमान श्री अरिहंत की प्रतिमाओं को देखकर पश्चिम दिशा के क्रम से नमस्कार करता है । (३६७) ताः पूर्ववत्प्रपूज्याष्टौ, मङ्गलानि प्रकल्प्य च । साष्टोत्तरशतश्लोकां कुंर्वति चैत्यवन्दनाम् ॥३६८॥ उन प्रतिमाओं की पूर्व के समान पूजाकर अष्ट मंगल की आलेख रचना कर १०८ श्लोक से स्तुति बोलकर चैत्य वंदन करते हैं । (३६८) . दाक्षिणात्यचैत्यवृक्षमहेन्द्रध्वजपूजनम् । कृत्वा नन्दापुष्करिणी, दाक्षिणात्यां वज्रन्ति ते ॥३६६ ॥ दक्षिण दिशा के चैत्य वृक्ष और महेन्द्र ध्वज की पूजा करके वे दक्षिण दिशा की नन्दा पुष्करिणी में जाते हैं । (३६६) तत्तोरणत्रिसोपानप्रतिरूपक पुत्रिकाः । व्यालरूपाण्यर्चयन्ति, पुष्पधूपादिकै रथ ॥३७०॥ उस नंदा पुष्करिणी के तोरण, तीन सौपान की पंक्ति, प्रतिरूपक पुतलियां और व्याल रूप की पुष्प धूप आदि से पूजा करते हैं । (३७०) चैत्यं प्रदक्षिणीकृत्यौत्तराहद्वारसंस्थिताम् । नन्दापुष्करिणमेत्य कुर्वन्ति प्राग्वदर्चनम् ॥३७१॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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