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________________ (३४०) वन्दित्वाऽथ नमस्कृत्य, ततः पुनरपि प्रभून् । चैत्यस्यास्य मध्य देशं, प्रमृज्याभ्युक्ष्य चाम्बुभिः ॥३५६॥ घृता कल्पं कल्पयन्तश्चारुचन्दनहस्तकैः । पुष्पपुन्जोपचारेण, धूपैश्चाभ्यर्चयन्त्यमी ॥३६०॥ उसके बाद देवता वंदन करके प्रभु को पुनः नमस्कार करके इस चैत्य के मध्य विभाग को प्रमार्जन कर पानी से साफ करके आचार को मन में धारण करते हुए आचार का पालन करते हुए वे देव सुन्दर चन्दन के हाथ की चिन्ह स्थापन कर पुष्प पूजा उपचार की क्रिया से और धूप से पूजा करते हैं । (३५६-३६०) चैत्यस्याथ दाक्षिणात्यं, द्वारमेत्यात्र संस्थिताः । . . . द्वारशाखापुत्रिकाश्च, व्यालरूपाणि. पूर्ववत् ॥३६१॥ प्रमार्जनाभ्युक्षणाभ्यां, पुष्पमाल्यविभूषणैः । स्रग्दामभिश्चार्चयन्ति, धूपधूमान् किरन्ति च ॥३६२॥ इसके बाद चैत्य के दक्षिण दिशा के द्वार के पास में आकर यहां के द्वार की पुत्तलियां तथा व्याल की आकृतियों को पर्व अनुसार पूजा करके पानी से साफ करते हैं फिर पुष्पमाला, आभूषण, फूल की माला से पूजा करते हैं फिर धूप करते. हैं । (३६१-३६२) ततश्च दक्षिणद्वारस्योपेत्य मुखमण्डपम् । . प्राग्वत्तस्य मध्यदेशे कुर्वन्ति हस्तकादिकम् ॥३६३॥ फिर उसके बाद दक्षिण द्वार के नीचे के विभाग में मुख मंडपको तथा उसके मध्य विभाग में पूर्व के समान हाथ के चिन्ह आदि करते हैं । (३६३) ततश्चास्य मण्डपस्य, पूर्वद्वारेऽपि पूर्ववत् । द्वार शाखापद्यर्चयन्ति स्तम्भांश्च दक्षिणोत्तरान् ॥३६४॥ फिर इस मंडप के पूर्व द्वार में द्वार शाखा आदि तथा दक्षिण और उत्तर दिशा के स्तंभों को पहले के समान पूजा करते हैं । (३६४) शेषद्वारद्वयेऽप्येवं, ततः प्रेक्षणमण्डपे । मध्यं द्वारत्रयं सिंहासनं समणिपीठिकम् ॥३६५॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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