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________________ (३३६) धूपं दत्वा जिनेन्द्राणामित्युक्तं यदिहागमे । साक्षाज्जिन प्रतिमयोस्तदभेदविवक्षया ॥३५४॥ श्री जिनेश्वर देवों के आगे धूप करके इस तरह जो आगम में कहा है, वह साक्षात् जिनेश्वर और जिनेश्वर की प्रतिमा की अभेद विवक्षा से कहा है । (३५४) सत्यप्येवं न मन्यन्ते, येऽचमिर्च्या जगत्पतेः 1 तान् धावतो मुद्रिताक्षानानयामः कथं पथम् ॥ ३५५॥ इस तरह होने पर इस प्रकार से स्पष्ट आगम वाणी होने पर भी जो जगत पति की पूज्य मूर्ति को स्वीकार नहीं करता है, वे आंख बंद करके दौड़ने वाले के समान किस तरह से मार्ग में ला सकते हैं ? (३५५) नमस्ते समस्त प्रशस्तर्द्धि धाम्ने, क्रमाश्लेषिनप्रेन्द्र कोटी रदाम्ने । भवापारपाथोधिपारप्रदाय, प्रदायाङ्गिनां संपदां निर्मदाय ॥ ३५६ ॥ भुजङ्गप्रयाता । वह स्वामी देव जगत्पति की स्तुति क्या करता है उसे कहते हैं - समस्त प्रशस्त ऋद्धि के धाम समान नम्र इन्द्रों के मुगुट की मालाएं जिनके चरणों को स्पर्श कर रही है, भव-जन्म रूपी अपार समुद्र को पार (अंत) कराने वाले, जगत के जीवों को संपत्ति देने वाले और मद रहित हे भगवान् आपको नमस्कार हो । (३५६.) इत्याद्यष्टोत्तर शतं, श्लोकानस्तोक धीधनाः । कुर्वन्त्य दोषान् प्रौढार्थ कलितान्, ललितान् पदैः ॥३५७॥ इस प्रकार से महान बुद्धि के धनवाले देवताओं के पद लालित्य से युक्त प्रौढ़ अर्थ से भरे हुए दोष रहित एक सौ आठ श्लोक से स्तुति करते हैं । (३५७) नमस्कारैः सुधासारसारैः स्तुत्वा जिननिति । शक्रस्तवादिकां चैत्यवन्दनां रचयन्त्यमी ॥ ३५८ ॥ उसके बाद देवता अमृत के सार से भी श्रेष्ठ नमस्कार द्वारा श्री जिनेश्वर देवों की इस प्रकार से स्तुति करके शक्रस्तवादि द्वारा चैत्यवंदन करते हैं । (३५८)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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