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(३३६)
सक्केक्षवस्त्राभरणैरलङकारैश्चतुर्विधैः ।। संपूर्णप्रतिकर्माण, उत्तिष्ठत्यासनात्ततः ॥३३६॥
इस प्रकार से सर्व अंग से अलंकृत बने, मस्तक ऊपर देदीप्यमान मुकुट वाले, सुन्दर चन्दन लेप से अलंकृत तिलक से शोभायमान, माला केश वस्त्राभूषण अलंकार, इस तरह चार प्रकार को क्रिया से सम्पूर्ण तैयार होकर आसन ऊपर से खड़े होते हैं । (३३५-३३६)
अलङ्कारगृहात्पूर्वद्वारा निर्गत्य पूर्ववत् । .. व्यवसायसभां प्राच्यद्वारेण प्रविशन्त्यमी ॥३३७॥ तत्र सिंहासने स्थित्वा, सामानिकोपढौकितम् । . पुस्तकं वाचयित्वाऽस्मात् स्थितिं जानन्ति धार्मिकीम् ॥३३८॥.
उसके बाद पहले के समान अलंकार सभा के पूर्वद्वार से निकल कर व्यवसाय सभा में पूर्व के द्वार से प्रवेश करते हैं और वहां सिंहासन ऊपर बैठकर सामानिक देवता के सामने रखे पुस्तकों को पढ़कर उसमें से धार्मिक आचार को जानते हैं । (३३७-३३८)
सिंहासनादथोत्थाय, व्यवसाय निकेतनात् । निर्गत्य प्राग्दिशा नन्दापुष्करिण्यां विशन्ति च ॥३३६॥ ... तत्त्राचान्ताः शुचीभृता, धौतहस्तकमा: क्रमात् ।
रौप्यं भृङ्गारमम्भोभिः प्रपूर्य दधतः करे ॥३४०॥
उसके बाद सिंहासन से उठकर व्यवसाय सभा में से पूर्व दिशा से निकल कर पूर्व दिशा से ही नंदा नामक पुष्करिणी में प्रवेश करते हैं, और वहां मुख शुद्धि कर हाथ पैर का प्रक्षालन-धौकर, पवित्र होकर रजत के कलश को पानी से भरकर हाथ में धारण करते हैं । (३३६-३४०)
नानापद्यान्युपादाय, पुष्करिण्या निरीय च । सिद्धायतनमायान्ति, सिद्धायतिनवोदयाः ॥३४१ ।।
पुष्करिणी में से नाना प्रकार के कमलों को ग्रहण करके, वहां से निकल कर सिद्ध-निश्चित किये, भविष्य कालीन नये उदय वह देव सिद्धायतन में प्रवेश करता है । (३४१)
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