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(३३५) देवताओं में सुरेन्द्र, ताराओं में चन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, पक्षियों में गरुड़ के समान इस विमान के बहुत देवियों के वैभव को बहुत पल्योपम सागरोपम तक आप श्री पालन करो । (३२८,३२६)
इत्येवमभिषिक्तास्ते ऽभिषेक भवनात्ततः । निर्गत्य पूर्वद्वारेण, यान्त्यलङ्कारमन्दिरम् ॥३३०॥ प्रदक्षिणीकृत्य पूर्वद्वारेण प्रविशन्ति तत् । सिंहासने निषीदन्ति, तत्र ते पूर्वदिग्मुखाः ॥३३१॥
इस तरह से अभिषेक होने के बाद वह नये उत्पन्न हुए मुख्य देवता अभिषेक भवन में से पूर्व के द्वार से निकलकर अलंकार मंदिर में जाता है, वहां प्रदक्षिणा देकर पूर्वद्वार से प्रवेश करते हैं, और वहां पूर्वदिशा के सन्मुख सिंहासन ऊपर विराजमान होता है । (३३०-३३१)
ततः सामानिका देवा, वस्त्रभूषासमुद्गकान् । .
शाश्वतान् ढौक यन्त्यद्य दंलरश्मिम कृताद्भुतान् ॥३३२॥
उसके बाद सामानिक देवता देदीप्यमान रत्नों के किरणों से आश्चर्य उत्पन्न करे इस प्रकार शाश्वत वस्त्राभूषण के डब्बे रखते हैं । (३३२)
ततस्ते प्रथमं चारु वस्त्ररूक्षितविग्रहाः । सुवर्णखचितं देवदूष्यं परिदधत्यथ ॥३३३ ॥ हारमेकावलि रत्नावली मुक्तावलीमपि ।
के यूर कटकस्फाराङ्गदकुण्डलमुद्रिकाः ॥३३४॥
उसके बाद वह देवता सुन्दर वस्त्र से शरीर को पोंछ कर सुवर्ण जड़ित देव दूष्य को धारण करता है, फिर एकावली, रत्नावली, मुक्तावली हार को पहनता है। केयूर (भुजबंध) हाथ में कड़ा, सुन्दर बाजूबंध, कुंडल और अंगूठी को धारण करता है। (३३३-३३४)
ततोऽलङ्कृतसर्वाङ्गा मौलिभ्राजिष्णुमौलयः ।। चारुचन्दनक्ल्प्ताङ्गरागास्तिलकशालिनः ॥३३५॥