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________________ (३३२) छत्राणि चामराण्येवं, तैलादीनां समुद्गकान् । सहस्त्रमष्टाभियुक्त तथा धूपकडुच्छकान् ॥३१०॥ एतत्सर्वं विकुाथ, सहजान् विकृतांश्च तान् । गृहीत्वा कलशादींस्ते, निर्गत्य स्वाविमानतः ॥३११॥ गत्वा च पुष्कर क्षीराम्बुध्योः पद्महृदादिषु । गङ्गादिकास्वापगासु, तीर्थेषु मागधादिषु ॥३१२॥ . तत्रत्यानि पयोमृत्स्नापुष्पमाल्याम्बुजान्यथ । . सहस्त्रशतपत्राणि, सिद्धार्थान् सकलौष धीः ॥३१३॥ भद्रशाल सौमनसादिभ्योऽपि निखिलर्तुजान् । फल प्रसून सिद्धार्थान् गोशीर्ष चन्दनानि च ॥३१४॥ . समादायाथ संभूय, ते सर्वेऽप्याभियोगिकाः । विमान स्वामिनामग्रे ढौकन्ते नतिपूर्वकम् ॥३१५॥ . फिर इसी बार वह वैक्रिय समुद्घात करके सोने के चान्दी के रत्न के सौने चान्दी के, सुवर्ण रत्न के, स्वर्ण रत्न रजत के, और मिट्टी के इस तरह प्रत्येक जात के १००८ कलश बनाते हैं तथा रत्नमय विशेष प्रकार के कलश, दर्पण, थाल छोटी रेकबी, बडे थाल, फूल करंडी, चंगेरिया, मोरपीच्छ, छत्र चमर तेल आदि के डब्बे तथा धूपदानियां ये सभी सामग्रियां १००८ की संख्या में बनाकर वह सहज और बनाये गये कलश आदि के ग्रहण करके स्वविमान में से निकल कर पुष्कर समुद्र, क्षीर समुद्र, पद्म सरोवर आदि गंगा आदि नदियों में और मागध आदि तीर्थों में जाकर वहां के पानी मिट्टी, पुष्पमाला, कमल, सहस्र दलकमल, शतदल कमल सरसों सकल औषधियों को एकत्रित करता है । तथा भद्रशाल, सौमनसादि वन में से प्रत्येक ऋतु के फल फूल सरसों तथा गोशीर्ष चन्दन एकत्रित करके वे सभी अभियोगिक देवता एकत्रित होकर विमान के स्वामी के आगे आकर नमस्कारपूर्वक समर्पण करते हैं । (३०७-३१५) सामानिकादयः सर्वे ततो विमान वासिनः । देवा देव्यश्च कलशैः स्वभाविकैविकुर्वितेः ॥३१६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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