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________________ (३३१) तत्राचान्ताः शुचीभूताः सद्योनिर्मितमज्जनाः । हृदान्निर्गत्याभिषेक सभामागत्य लीलया ॥३०२॥ प्रदक्षिणी कृत्य पूर्व द्वारा विशन्ति तामपि । तत्र सिंहासने पूर्वाभिमुखास्ते किलासव ॥३०३॥ . वहां मुख शुद्धि करके पवित्र होकर, जल्दी स्नान करके सरोवर में से निकलकर अभिषेक सभा में लीलापूर्वक आता है वहां अभिषेक सभा को प्रदक्षिणा देकर पूर्व द्वार से सभा में प्रवेश करके पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठता है । (३०२-३०३). ततः सामानिकास्तेषामाभियोगिक निर्जसन् । आकार्याज्ञापयन्त्येवं, सावधाना भवन्तु भोः ॥३०४॥ उसके बाद सामानिक देवता उनके अभियोगिक देवताओं को बुलाकर इस तरह आज्ञा करते हैं कि हे देवताओं ! तुम सावधान हो जाओ । (३०४) अस्य नः स्वामिनो योग्यां, गत्वाऽनां महीयसीम् । इन्द्राभिषेक सामग्रीमिहानयत्. सत्वरम् ॥३०॥ यह अपने स्वामी के योग्य बड़ी और महामूल्यवान इन्द्र के योग्य अभिषेक सामग्री जल्दी से लेकर आ जाओ । (३०५) ततस्तेऽपि प्रमुदिताः प्रतिपद्य तथा वचः । · ऐशान्यामेत्य कुर्वन्ति, समुद्घातं च वैक्रियम् ॥३०६॥ - उसके बाद वे देव भी खुश होकर उस वचन को स्वीकार कर ईशान दिशा के कोने में जाकर वैक्रिय समुद्घात करते हैं । (३०६) द्विस्तं कृत्वा च सौवर्णान् रत्नविनिर्मितान् । सुवर्णरुप्यजान् स्वर्णरत्नजान् रुप्यरत्नजान् ॥३०७॥ स्वर्ण रुप्य रत्नमयास्तथा मृत्स्नामयानपि । सहस्त्रमष्टाभ्यधिकं, प्रत्येकं कलशानमून् ॥३०८॥ भृङ्गारादर्शकस्थालपात्रिका सुप्रतिष्ठकान् । करण्डकान् रत्नमयान् चङ्गेरीलॊमहस्तकान् ॥३०६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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