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उसके बाद क्या कर्तव्य है ? हमारे हितकर, सुखकर, श्रेयस्कर और परम्परा से शुभ की प्राप्ति करने वाला क्या है ? (२६४-२६५)
ततः स्वस्वामिनामेवमभिप्रायं मनोगतम् । ज्ञात्वा सामानिका देवा, वदन्ति विनयानताः ॥२६६॥ जिनानां प्रतिमाः स्वामिनिह सन्ति जिनालये । अष्टोत्तर शतं चैत्य स्तम्भेऽस्थीनि तथाऽर्हताम् ॥२६७॥ पूज्यानि तास्तानि चात्र, युष्माकं चान्य नाकिनाम्। प्राक् च पश्चाच्च कार्य च एतान्निःश्रेयसावहम् ॥२६८॥ इह लोके परलोके, हितवाप्तिर्भविष्यति । युष्माकमर्हत्प्रतिमा पूजन स्तवनादिभिः ॥२६६॥
उसके बाद अपने स्वामी के मन का ऐसा अभिप्राय जानकर सामानिक देवता विनयपूर्वक कहते हैं कि - हे स्वामिन् ! यहां जिनालय में एक सौ आठ जिन प्रतिमा जी है तथा चैत्य स्तंभों में श्री जिनेश्वर भगवन्त की अस्थियां है । वे प्रतिमा और अस्थियां सर्वप्रथम यहां तुम्हें और अन्य देवताओं को पूज्य है अतः प्रथम अथवा बाद यह कार्य करना चाहिए । यह कार्य कल्याणकारी व हितावह है तथा श्री अरिहंत भगवन्तों की प्रतिमा का पूजन और स्तवन आदि से इस लोक और परलोक सम्बन्धी हितकारी होगा । (२६६-२६६)
वाक्यानि तेषामाकर्येत्युत्थाय शयनीयतः । निर्यान्ति पर्वद्वारेणोपपातमन्दिरात्तत्तः ॥३००॥
उसके बाद उनके वचन सुनकर शय्या में से उठकर पूर्वद्वार से उपपात मंदिर में से वह स्वामी देव बाहर निकलता है । (३००)
हृदं पूर्वोक्तमागत्य तत्र कृत्वा प्रदक्षिणाम् । प्रविशन्ति च पौरस्त्यत त्रिसोपानकाध्वना ॥३०१॥
फिर पूर्वोक्त सरोवर के पास में आकर वहां प्रदक्षिणा देकर पूर्व दिशा के तीन सोपानक मार्ग द्वारा सरोवर में प्रवेश करता है । (३०१)