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ततोऽनेनेव देहे नाभिषेक करणादनु । वक्ष्यमाणा प्रकारेणालङ्कारान् दधति ध्रुवम् ॥२६२॥
इसके बाद देह द्वारा अभिषेक करने के बाद अलंकारों को धारण करते हैं, उसका वर्णन आगे कहा जाता है । (२६२)
विरच्यन्ते पुमर्ये तु, सुरैरूत्तर वैक्रियाः । ते स्युः समयमुत्पन्न वस्त्रालङ्कार भासुराः ॥२६३॥
और देवता जो उत्तर वैक्रिय रूप धारण करते हैं, उस रूप की उत्पत्ति की साथ में ही वस्त्रालंकार से शोभायमान हो जाते हैं । (२६३)
तथोक्तं जीवाभिगम सूत्रे - "सोहम्मीसाण देवा केरिसया विभूसाए पं०? गोयम ! दुविहा पण्णता, तं० वेउव्विय सरीरा य अवेऊव्वि सरीरा य, तत्थणं जे ते वेउ विवय सरीरप्ते हारविराइयवच्छाजाव दस दिसाओ उज्जोए माणा" इत्यादि । तत्थणंजे ते अवेउब्विय सरीरातेणं आभरण वसण रहिया पगतित्था विभूसाए पण्णत्ता ।' •
श्री जीवाभिगम सूत्र में कहा है कि - 'सौधर्म-ईशान के देवता वेशभूषा से कैसे होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान कहते हैं कि - हे गोतम ! देवता दो प्रकार के होते हैं वह इस प्रकार- १- उत्तर वैक्रिय शरीर वाले और २- वैक्रिय शरीर' वाले होते हैं, उसमें उत्तर वैक्रिय शरीर वाले देव हार विराजित वक्ष स्थल वाले होते हैं । यावत वे उनके द्वारा दसो दिशा को प्रकाशित करते हैं और मूल वैक्रिय शरीर वाले देव अलंकार-वस्त्रादिक से रहित स्वभाव से ही शोभायमान होते हैं ।'
ततः शय्या निविष्टानां तेषां स्वयं भवेत् । अभिप्रायः स्फूटः सुप्तोत्थितानामिव धीमताम् ॥२६४॥ कर्तव्यं प्राक्किमस्माभिः, किं कर्त्तव्यं ततः परम्। किं वाहितं सुखं श्रेयः, प्रारम्पर्यशुभाप्तिकृत ? ॥२६५॥
निद्रा से जागृत हुए बुद्धिमान पुरुषों के समान शय्या में रहे उस देव के मन में आए स्पष्ट अभिप्राय (विचार) होते हैं कि - हमारा प्रथम कर्तव्य क्या है?