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________________ (३२८) ततश्चान्तर्मुहूत्तैन, पन्चपर्याप्तिशालिनः । द्वात्रिंशद्वर्ष तरुणा, इव भोग प्रभूष्णवः ॥२८७॥ समन्ततो जय जयनन्द ,नन्देतिवादिभिः ।। देवाङ्गनानां निकरैः सुस्नेहमवलोकिताः ॥२८८॥ स्वाम्युत्पत्ति प्रमुदितैः, सुरैः सामानिकादिभिः । अष्टाङ्गस्पृष्टभूपीढुर्नम्यन्ते भक्तिपूर्वकम् ॥२८६ ॥ त्रिभि विशेषकं ।। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में पांच पर्याप्ति से शोभायमान बत्तीस वर्ष के युवान समान भोग में समर्थ बन जाते हैं । और उसे चारों तरफ से जय जय नन्द नन्द इस तरह से बोलते देवांगनाओं के समूह स्नेह पूर्वक देखते हैं । स्वामी की उत्पत्ति से खुश हुए सामानिक आदि देवता भक्ति पूर्वक साष्टांग नमस्कार करते हैं। (२८७-२८६) पन्च पर्याप्तयस्तेषामुक्तास्तीर्थांकरैरिति । यद्भपापाचित्त पर्याप्तयोः समाप्तौ स्तोकमन्तरम् ॥२६०॥ उन देवों को भाषा और मनः पर्याप्ति की समाप्ति का अन्तर बहुत अल्प होने से श्री तीर्थंकर परमात्माओं ने पांच पर्याप्तियां कही हैं । (२६०) तदुक्तं राजप्रश्नीय वृत्तौ - "इदं भाषामनः पर्याप्त्योः समाप्ति कालान्तरस्य प्रायः शेष पर्याप्ति समाप्ति कालान्तरा पेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षण मिति ‘पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छई"त्युक्तं । राजप्रश्नीय सूत्र की टीका में कहा है कि - 'शेष पर्याप्ति के समाप्ति काल के अन्तर की अपेक्षा से यह भाषा और मनः पर्याप्ति की समाप्ति की काल का अन्तर प्रायः अल्प होने से एक के कारण विवक्षा की है ।' पांच प्रकार की पर्याप्ति से पर्याप्त रूप को प्राप्त करता है । इति । एषामुत्पन्न मात्राणां, देहा वस्त्र विवर्जिताः । . स्वाभाविकस्फाररूपा अलङ्कारोज्झिता अपि ॥२६१॥ . ये उत्पन्न हुए देवताओं के देह, वस्त्र तथा अलंकारों से रहित होने पर भी स्वाभाविक रूप में अत्यन्त स्वरूपवान् होते हैं । (२६१)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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