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उस सभा में रही रत्न पीठिका ऊपर रत्न सिंहासन होता है, वहां सुन्दर पुस्तक होती है, उसके पत्ते रत्नमय होते हैं । (२७४)
रिष्टरत्नमये तस्य, पृष्टके शिष्टकान्तिनी । रूप्योत्पन्नदवरक प्रोता च पत्र संततिः ॥२७५॥
उसकी रिष्ट रत्नमय मुख पृष्ट के पीछे शिष्ट सुशोभज कान्ति वाली और रजत के रस्सी से पिरोये पन्ने की श्रेणि होती है । (२७५)
ग्रन्थिर्दवरकस्यादौ, नानामणिमयो भवेत् । न निर्गच्छंति पत्राणि दृढं रूद्धानि येन वै ॥२७६ ।। मषीभाजनमे तस्य, वर्यवैडूर्यरत्नजम् । . तथा मषीभाजनस्य, शृङ्खला. तपनीयजा ॥२७७॥ मषीपात्राच्छादनं च, वरिष्टरिष्टरत्नजम् ।। लेखनी स्याद्वज़मयी मषीरिष्टमयी भवेत् ॥२७॥ रिष्टरत्नमया वर्णाः सुवाचा: पीन वर्तुलाः । धार्मिको व्यवसायश्च, लिखितस्तत्र तिष्ठिति ॥२७६॥
इन पन्नों के ऊपर रस्सी आदि में विविध मणिमय गांठ होती है कि जिससे बन्धन की पत्तों की श्रेणि अलग नहीं होती । इस पुस्तक की स्याही दवात । श्रेष्ठ वैडूर्य रत्न से बना हुआ होता है । जबकि दवात की जंजीर तपे हुए स्वर्ण की है। दवात के ढंकन श्रेष्ठ रिष्ट रत्न का बना हुआ होता है, उसकी लेखनी कलम वज्रमय रत्न की और मषी-स्याही रिष्ट रत्न मय होती है । अक्षर वर्ण रिष्ट रत्नमय होता है, जो सुवाचा - सुन्दर वाक्य अच्छे मोटे और सुन्दर मरोड वाले होते हैं इस पुस्तक में धार्मिक व्यवहार लिखा हुआ होता है । (२७६-२७६)
व्यवसाय सभायाश्चैशान्यामत्यन्त शोभना । नन्दा पुष्करिणी फुल्लाम्भोजकिज्जल्क पिन्जरा ॥२८०॥ .
व्यवहार सभा के ईशान कोने में नन्दा नाम की सुशोभन वावडी है । उसका पानी खिले कमल के पराग से पीला है । (२८०) .