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(३२३) भवेत्सर्वं सुधर्मावदिह द्वारत्रयादिकम् । विज्ञेयं तत्स्वरूपं च, पूर्वोक्तमनुवर्तते ॥२५५॥
सुधर्मा सभा के समान यहां तीन द्वार आदि सभी प्रकार से जानना और उसका स्वरूप पूर्व कहे अनुसार समझना । (२५५) .
यावदभ्यन्तरे भागे, स्युर्मनोगुलिकाः शुभाः । तथैव गोमानसिकास्ततश्चैतद्विशिप्यते ॥२५६॥
अन्दर के विभाग में मनोगुलिका नाम की पीठिका और गोमानसिका तक यह सारा वर्णन समान समझना चाहिए । इसके बाद इतना विशेष है । (२५६)
तस्य सिद्धायतनस्य मध्यतो मणिपीठिका । उपर्यस्या भवत्येको, देवच्छन्दक उद्भटः ॥२५७॥ अष्टोत्तरशतं तत्र, प्रतिमाः शाश्वतार्हताम् । वैमानिका देव देव्यो, भक्तिगतः पूजयन्ति याः ॥२५८॥ उस सिद्धायतन के मध्य विभाग में मणि पीठिका है । उसके ऊपर सुन्दर देवछंद है, उस देवछंद के अन्दर श्री अरिहंत भगवान की शाश्वती एक सौ आठ प्रतिमा होती है । उसे वैमानिक देव और देवियां भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं । (२५७-२५८) ..
. घण्टा कलश भृङ्गार दर्पणाः सुप्रतिष्ठकाः । . . . स्थाल्यो मनोगुलिंकाश्च चित्ररत्नकरण्डकाः ॥२५६॥
पात्र्यो बातकरकाश्च, गजाश्वनरकण्ठका : । .. महोरगकिं पुरुषवृषकिन्नरक ण्ठ काः ॥२६०॥
पुष्पमाल्य चूर्ण गंध वस्त्राभरण पूरिताः ।
चङ्गेर्यः सिद्धार्थ लोमहस्तकैरपि ता भृताः ॥२६१॥ . पुष्पादीनां पटलानि, च्छत्रचामरके तवः । - तैलकोष्ठ शतपत्रतगरै लासमुद्रकाः ॥२६२॥ हं सपाद हरिताल मनःशिलाजनैभृताः । समुद्रकाश्च घण्टाद्यास्तत्राष्टाढयं शतं समे ॥२६३॥